आजादी के आंदोलन में इटावा स्थित चंबल के डाकुओं ने भी दिखाया देशप्रेम

Edited By Tamanna Bhardwaj,Updated: 14 Aug, 2019 02:12 PM

the dacoits of chambal in etawah also showed patriotism

शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान की प्रतीक उत्तर प्रदेश में इटावा स्थित चंबल घाटी के डाकुओं के आंतक ने भले ही देश की कई सरकारों को हिलाया हो लेकिन यह बहुत ही कम लोग जानते है कि यहां के डाकुओं ने अग्रेंजी हुकूमत के दौरान आजादी के दीवानों की तरह अपनी...

 

इटावाः शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान की प्रतीक उत्तर प्रदेश में इटावा स्थित चंबल घाटी के डाकुओं के आंतक ने भले ही देश की कई सरकारों को हिलाया हो लेकिन यह बहुत ही कम लोग जानते है कि यहां के डाकुओं ने अग्रेंजी हुकूमत के दौरान आजादी के दीवानों की तरह अपनी देशप्रेमी छवि से देशवासियो के दिलों में ऐसी जगह बनाई कि हम उन्हें स्वतंत्रता दिवस के दिन याद किये बिना रह नही पाते है।

चंबल फाउंडेशन के संस्थापक शाहआलम का कहना है कि आज़ादी पूर्व चंबल में बसने वाले डाकूओं को पिंडारी कहा जाता था। डाकुओं ने देश के क्रांतिकारियों को न केवल असलहा व गोला बारूद मुहैया कराया बल्कि उनको छिपने का स्थान भी दिया। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। चंबल में रहने वालों ने क्रांतिकारियों का भरपूर साथ दिया।

बीहड़ क्रांतिकारियों के छिपने का सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था। चंबल के डकैतों को बागी कहलाना ही पसंद है। आजादी के बाद बीहड़ में जुर्म होने लगे, जो उनकी मजबूरी थी। बीहड में बसे डकैतों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर क्रान्तिकारियों का साथ दिया लेकिन आजादी के बाद उन्हें कुछ नहीं मिला।

राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चंबल के किनारे 450 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बागी आजादी से पहले रहा करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था। पिंडारी मुगलकालीन जमींदारों के पाले हुए वफादार सिपाही हुआ करते थे, जिनका इस्तेमाल जमींदार विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने जीवन यापन के वहीं डकैती डालना शुर कर दिया और बचने के लिए अपनाया चंबल की वादियों का रास्ता।



 

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