यूपी में ब्राह्मण किंगमेकर’ बने, पर ‘किंग’ नहीं, पढ़ें यूपी की सियासत से जुड़ी स्पेशल रिपोर्ट

Edited By Ramkesh,Updated: 30 Dec, 2025 01:03 PM

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले ब्राह्मण समाज की सत्ता में सीधी हिस्सेदारी बीते 32 सालों से गायब है। 1993 के बाद से यूपी को एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं मिला। सवाल यह है कि जिस प्रदेश में ब्राह्मणों की बौद्धिक,...

लखनऊ (अश्वनी कुमार सिंह): उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले ब्राह्मण समाज की सत्ता में सीधी हिस्सेदारी बीते 32 सालों से गायब है। 1993 के बाद से यूपी को एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं मिला। सवाल यह है कि जिस प्रदेश में ब्राह्मणों की बौद्धिक, प्रशासनिक और राजनीतिक भूमिका मजबूत रही, वहां सत्ता की कुर्सी उनसे कैसे दूर होती चली गई?

आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री कौन?
उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे पंडित कमलापति त्रिपाठी (1971–73) और बाद में नारायण दत्त तिवारी (1988–89)। इसके बाद 1990 के दशक से सत्ता की धुरी पूरी तरह बदल गई।

1990 के बाद बदली राजनीति की धारा
1990 के बाद यूपी की राजनीति तीन बड़े ध्रुवों में बंट गई मंडल राजनीति (ओबीसी)
दलित राजनीति
हिंदुत्व की राजनीति
इसी दौर में सत्ता पर काबिज हुए

  • मुलायम सिंह यादव (ओबीसी)
  • मायावती (दलित)
  • कल्याण सिंह(लोधी)
  •  राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ (ठाकुर)
  • ब्राह्मण नेतृत्व धीरे-धीरे पावर सेंटर से बाहर होता चला गया।

ब्राह्मण समाज के पीछे छूटने की बड़ी वजहें

- जातिगत गोलबंदी की कमी

- ब्राह्मण समाज राजनीतिक रूप से बिखरा रहा।

- न तो एक मजबूत जातीय नेतृत्व उभरा, न ही संगठित

- वोट बैंक की तरह व्यवहार हुआ।  

 किंगमेकर’ बने, ‘किंग’ नहीं
ब्राह्मण नेता सरकारों में मंत्री, रणनीतिकार और संगठनकर्ता बने, लेकिन मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने की लड़ाई निर्णायक ढंग से नहीं लड़ी। मंडल के बाद समीकरण बदले
ओबीसी और दलित राजनीति ने संख्याबल और सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मुख्यधारा अपने हाथ में ले ली।

 बीजेपी में संतुलन की राजनीति
बीजेपी ने ब्राह्मणों को संगठन और केंद्र की राजनीति में जगह दी, लेकिन यूपी में मुख्यमंत्री पद के लिए ठाकुर या ओबीसी चेहरे चुने गए, ताकि व्यापक सामाजिक संतुलन साधा जा सके।

 कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं
कलराज मिश्र, शिवप्रताप शुक्ल, हरिशंकर तिवारी जैसे नाम रहे, लेकिन कोई भी ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं बन पाया जो पूरे प्रदेश में स्वीकार्य हो।

क्या ब्राह्मण पूरी तरह सत्ता से बाहर हैं?
ब्राह्मण आज भी
सरकारों में मंत्री हैं
संगठन में निर्णायक भूमिका में हैं
प्रशासनिक तंत्र में प्रभावशाली हैं
लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी अब तक दूर है।
हालिया हलचल क्या संकेत देती है?
ब्राह्मण विधायकों की बैठक, संगठन की नाराजगी और विपक्ष की प्रतिक्रिया यह बताती है कि समाज के भीतर असंतोष जरूर है।
लेकिन बीजेपी साफ संदेश दे रही है जातिगत राजनीति नहीं, संगठन सर्वोपरि।
आगे की राजनीति
2027 विधानसभा

 चुनाव से पहले सवाल फिर उठेगा

क्या ब्राह्मण समाज कोई साझा नेतृत्व खड़ा कर पाएगा या फिर सत्ता की राजनीति में उसकी भूमिका किंगमेकर तक ही सीमित रहेगी .यूपी की राजनीति में ब्राह्मण समाज हाशिए पर नहीं, लेकिन सत्ता के शिखर से दूर जरूर है। 32 साल में एक भी मुख्यमंत्री न बन पाना बदलते सामाजिक समीकरण, रणनीतिक चूक और संगठनात्मक प्राथमिकताओं का नतीजा है। आने वाले चुनाव बताएंगे कि यह दूरी खत्म होती है या इतिहास और लंबा होता है।

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