Edited By Ramkesh,Updated: 04 Feb, 2023 09:43 AM

इलाहाबाद उच्च न्यायालय Allahabad High Court की लखनऊ खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति, जनजाति (एससी /एसटी) अधिनियम के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में विवेचना अधिकारी के लिए यह अनिवार्य...
लखनऊ: इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court ) की लखनऊ खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति, जनजाति (एससी /एसटी) अधिनियम के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में विवेचना अधिकारी के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह हर मामले में आरोप पत्र ही दाखिल करे। अदालत ने कहा कि जहां साक्ष्यों के आधार पर उक्त अधिनियम के तहत मामला बन रहा हो, उन्हीं मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया जा सकता है। यह फैसला न्यायमूर्ति राजन रॉय एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार पचौरी की पीठ ने ज्ञानेन्द्र मौर्या उर्फ गुल्लू की याचिका पर पारित किया।

याची ने अधिनियम की धारा 4 (2) (ई) एवं अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम के नियम 7(2) को असंवैधानिक घोषित किए जाने की मांग की थी। उसका कहना था कि अधिनियम की धारा 4(2)(ई) एवं नियम 7(2) विवेचना अधिकारी को विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने का दायित्व देते हैं। याचिका में कहा गया कि दोनों प्रावधानों में ‘आरोप पत्र' शब्द का इस्तेमाल किया गया है जिसका आशय है कि विवेचना अधिकारी अभियुक्त के विरुद्ध ‘आरोप पत्र' ही दाखिल कर सकता है, विवेचना के दौरान अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य न पाए जाने पर भी वह ‘अंतिम रिपोर्ट' दाखिल करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।
पीठ ने याची की इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि उक्त प्रावधानों में ‘पुलिस रिपोर्ट' के बजाय ‘आरोप पत्र' शब्द के प्रयोग के कारण याची के मन में शंका है। अदालत ने कहा कि उक्त प्रावधानों को तर्कसंगत तरीके से पढे़ जाने की आवश्यकता है, कानूनी प्रावधानों को अतार्किक तरीके से नहीं पढ़ा जा सकता है। अपने फैसले में अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट किया जाता है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज प्रत्येक प्राथमिकी में विवेचनाधिकारी के लिए आरोप पत्र दाखिल करना अनिवार्य नहीं है।