मकर संक्रांति: अद्दश्य सरस्वती के संगम स्थल आदिकाल से चली आ रही है कल्पवास की परंपरा

Edited By Tamanna Bhardwaj,Updated: 13 Jan, 2022 04:24 PM

makar sankranti the tradition of kalpavas has been going on

गंगा-यमुना और अद्दश्य सरस्वती के संगम स्थल पर 14 जनवरी को के साथ दुनिया के सबसे बड़े आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ‘माघ मेला'' में आदिकाल से चली आ रही कल्पवास की परंपरा का निर्वहन किया जाय...

प्रयागराज: गंगा-यमुना और अद्दश्य सरस्वती के संगम स्थल पर 14 जनवरी को के साथ दुनिया के सबसे बड़े आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ‘माघ मेला' में आदिकाल से चली आ रही कल्पवास की परंपरा का निर्वहन किया जायेगा। तीर्थराज प्रयाग में संगम तट पर पौष पूर्णिमा से कल्पवास आरंभ होकर माघी पूर्णिमा के साथ संपन्न होता है। मिथिलावासी मकर संक्रांति से अगली माघी संक्रांति तक कल्पवास करते हैं। इस परंपरा का निर्वहन करने वाले मुख्यत: बिहार और झारखंड के मैथिल्य ब्राह्मण होते हैं जिनकी संख्या बहुत कम होती है। पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक बड़ी संख्या में श्रद्धालु कल्पवास करते हैं।

वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के पूर्व आचार्य डॉ. आत्माराम गौतम ने कहा कि पुराणों और धर्मशास्त्रों में कल्पवास को आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए जरूरी बताया गया है। यह मनुष्य के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण एवं आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। हर वर्ष कल्पवासी एक महीने तक संगम गंगा तट पर अल्पाहार, स्नान, ध्यान एवं दान करते है। देश के कोने कोने से आये श्रद्धालु संगम तीरे शिविर में रहकर माह भर भजन-कीर्तन शुरू करेंगे और मोक्ष की आस के साथ संतों के सानिध्य में समय व्यतीत करेंगे।

सुख-सुविधाओं का त्याग करके दिन में एक बार भोजन और तीन बार गंगा स्नान करके कल्पवासी तपस्वी का जीवन व्यतीत करेंगे। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। आज भी श्रद्धालु कड़ाके की सर्दी में कम से कम संसाधनों की सहायता लेकर कल्पवास करते हैं। 

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