Edited By Umakant yadav,Updated: 29 May, 2020 07:18 PM
एक वक्त था जब मऊ की गलियों में हर वक्त हैंडलूम से साड़ियों के बुनने की आवाज गूंजती रहती थी लेकिन अब ये आवाजें कहीं महरूम हो गई हैं। अब इन गलियों में एक सुई गिर जाये तो सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज ...
मऊ: एक वक्त था जब मऊ की गलियों में हर वक्त हैंडलूम से साड़ियों के बुनने की आवाज गूंजती रहती थी लेकिन अब ये आवाजें कहीं महरूम हो गई हैं। अब इन गलियों में एक सुई गिर जाये तो सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज सुनाई देती है | मऊ शहर उत्तर प्रदेश का एक बुनकर बाहुल्य जिला है, जहां बुनकरी का काम (साड़ी बुनकर) कर लोग अपने परिवार का पालन -पोषण करते हैं। लेकिन आज एक ऐसा समय आ गया है कि जालिम कोरोना बुनकरों को साड़ी बुनने ही नहीं दे रहा है और बुनकरों के सपनों पर पानी फेर कर रख दिया है। साड़ी तैयार न होने से बुनकर खून के आंसू रो रहे हैं।
कोरोना ने लोगों की जिंदगी को घरों में सिमटने पर मजबूर कर दिया है। लोग चाहकर भी बाहर की हवा नहीं ले पा रहे हैं। पूर्वांचल की साड़ी उद्योग इसलिए समृद्ध भी है कि मऊ में बुनकरों का इतिहास काफी पुराना है। एक वो भी वक्त था जब यह जनपद यूपी का मैनचेस्टर कहा जाता था। पहले इस शहर के हर घर में लूम की आवाज सुनाई पड़ती थी । लॉकडाउन की अवधि बढ़ने से आज बुनकरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। जो जिंदगी लूम के खटर- पटर से शुरू होती थी आज इस रफ्तार पर ज़ालिम कोरोना ने लगाम लगा दिया है। इन्हीं हकीकत को जानने के लिए जब पंजाब केसरी टीम बुनकर बाहुल्य क्षेत्र की गलियों में पहुँची तो वहां देखा कि गलियों में चलने वाली लूम बंद पड़ी हैं और खौफ से गलियों में सन्नाटा पसरा है। एक महिला को दूसरे से मऊ वाली भाषा में कहती है कि "अजी म का बताओं लकी वजह से मोरा लूमवा बंद पड़ा ह आउर सरकार हमन का कुछ ख्याल नाहीं करती, हमन के भूख्खन मरे पर मजबूर ह, अभीन बुनिया के ब्याह की फिक्र ह” ऐसी आवाजें और दर्द ना जाने कितने बुनकरों के घरों से निकल रहे हैं।
मऊ के एक मजदूर बुनकर असद नोमानी का कहना है कि दलाल से कोन नाहीं मिलत " कई से लूमवा चलिए और घरा के सब लोग दिन भर लगत तेन तब जा क एक ठो साड़ी तैयार होती आज कल लॉकडाऊन में ऊहो कमवा नाहीं हो पावत " । ऐसी स्थिति में लॉकडाउन के कारण बुनकरों की स्थिति दिन प्रतिदिन और खराब होती जा रही है जिसके चलते बेरोजगारी बढ़ने लगी है। लूम का ब्रेक होना उनके लिए जीवन रेखा पर ब्रेक लगाने जैसा हो गया है। हालांकि सरकार के निर्देश पर प्रशासन द्वारा हर जरूररतमन्दों को चिन्हित कर उनके घर तक राहत सामग्री पहुचाने का काम हो रहा है। बुनकर आसीम का कहना है कि सेठ/साहूकारों से कच्चा माल लेकर बुनकर साड़ी तैयार करते हैं, जिसके एवज़ में इन्हें प्रति साड़ी 200 से 300 रूपया ही मिलता है और पूरा परिवार मिल कर जब दिन भर ये काम करता है तो दो वक्त की रोटी नसीब होती है लेकिन आज वह भी नसीब नहीं हो रही है।
आंकड़े के अनुसार शहर क्षेत्र की आबादी करीब 2.78 लाख है। इसमें से एक लाख लोग बुनकरी से जुड़े हैं। इसके चलते अकेले मऊ शहर में करीब 50 लाख लूम हैं। जो दिन रात चलते है। बुनकर परिवार इन लूमों को चलाकर अपने घर का खर्च चलाता है। बुनकरों के परिश्रम से प्रतिदिन करीब एक लाख साड़ियां तैयार होती थी। इन उत्पाद को भेजने के लिए शहर में प्रतिदिन तीस से चालीस ट्रक लगते थे। लेकिन लाकडाउन के बाद से यह स्थिति बिगड़ चुकी है | अब बुनकर इस आसरे में बैठा है कि कब लाकडाउन खुले और वो मेहनत कर दो वक्त की रोटी का इंतेज़ाम करे।