जानिए, मुहर्रम पर अपना खून क्यूं बहाते है शिया समुदाय के लोग

Edited By Tamanna Bhardwaj,Updated: 07 Sep, 2019 11:42 AM

know why people of shia community shed their blood on muharram

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार ये इस्लाम का नया साल है, जो बकरीद के आखिरी महीने के बाद आता है। मोहर्रम सिंबल है कर्बला की जंग का, जो इराक में मौजूद है। कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह...

बुलंदशहरः इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार ये इस्लाम का नया साल है, जो बकरीद के आखिरी महीने के बाद आता है। मोहर्रम सिंबल है कर्बला की जंग का, जो इराक में मौजूद है। कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है। क्योंकि ये वो जगह है जहां इमाम हुसैन की कब्र है। कर्बला में होने वाली जंग इस्लामिक जंगों में सबसे अलग जंग कही जाती है। क्योंकि इस जंग में इमाम हुसैन को क़त्ल कर दिया गया था।
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दुनियाभर में मोहहर्म को कई तरह से मनाया जाता है, मगर शिया समुदाय के लोग मोहर्रम के महीने में शोक में डूबे होते हैं, जबकि शिया समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोग मोहर्रम में मजलिस, और मातम करते हैं, लेकिन ये लोग मातम क्यों करते हैं? आईए इस रिपोर्ट के जरिए समझते हैं।
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शुरु हुआ मोहर्रम का महीना
बुलंदशहर के सिकन्द्राबाद में इमाम हुसैन की याद में डूबे उनके अनुयाई शोक मना रहे हैं, और सड़कों पर जुलूस निकालकर मातम कर रहे हैं। इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से ये मोहर्रम' का महीना है और इस्लाम के अनुसार इस महिने की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है, जिसे मोहर्रम कहा गया है।

कौन हैं हुसैन?
हुसैन, जो सुन्नी मुस्लिमों के चौथे खलीफा और शिया मुस्लिम के पहले इमाम कहे जाने वाले हजरत अली के बेटे थे। ये वो हुसैन हैं जो पैगंबर (अल्लाह का दूत) मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के बेटे थे। 6- 7 साल के थे तभी उनकी मां इस दुनिया छोड़कर रुखसत हो गई थीं। ये वो हुसैन हैं, जिनको कर्बला में खंजर से गला काटकर मारा गया।

यहां से शुरू हुई मोहर्रम की कहानी
मोहर्रम के महीने में ही पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों का कत्ल कर दिया गया था। बताते हैं कि हजरत हुसैन और उनके 71 साथी इराक के शहर कर्बला में यजीद की फौज से इस्लाम पर हक की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए थे। कहा जाता है कि इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने के लिए कहा गया है। जबकि छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीजों को इस्लाम में हराम करार दिया गया है।

पैगंबर हजरत मुहम्मद के सिद्घान्तों पर अमल करते थे हुसैन
हजरत हुसैन ने, हजरत मोहम्मद साहब के इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने परिवार को भी दी। वहीं दूसरी तरफ इस्लाम का जहां से उदय हुआ, मदीना से कुछ दूर 'शाम' में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें, क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं, और उनका वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है।

जब नाना हजरत मोहम्मद का शहर छोड़कर जाने लगे इमाम
यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इंकार कर दिया था, क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे।

71 साथियों संग इमाम हुसैन का किया गया घेराव
इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन कर्बला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे, क्योंकि उन्हें अपने नाना पैग़म्बर मोहम्मद साहब की वो बात याद थी जिसमें मोहम्मद साहब ने कहा था कि इस्लाम जंग नहीं मोहब्बत से जीता जाता है। उस दौरान हजरत हुसैन के 71 साथियों में उनका छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। ये मोहरर्म की एक तारीख थी, और गर्मी का वक्त था।

इस्लाम के लिए हजरत हुसैन ने दी शहादत
बताया जाता है की सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना, और पानी था वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के मेंबर और अनुयायी भूखे प्यासे रहे। 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी शहीद हो चुके थे तब असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और हजरत हुसैन ने भी हक पर लड़ते हुए इस्लाम के लिए शहादत दे दी। कर्बला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है।
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इसलिए, इमाम हुसैन की याद में मनाया जाता है मोहर्रम
बताया जाता है कि इसलिए शिया समुदाय मोहर्रम के दिन काले कपड़े पहनकर हुसैन, उनके परिवार और अनुयाई की शहादत को याद करते हैं। और उनकी शहादत को याद करते हुए सड़कों पर जुलूस भी निकालाकर मातम मनाते हैं।

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