Edited By Pooja Gill,Updated: 19 May, 2025 11:11 AM

प्रयागराज: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को मुक्त भाव से अपने धर्म का अनुपालन और उसका प्रचार प्रसार करने का अधिकार देता है, लेकिन यह बलपूर्वक या धोखे से धर्म परिवर्तन का समर्थन नहीं करता...
प्रयागराज: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को मुक्त भाव से अपने धर्म का अनुपालन और उसका प्रचार प्रसार करने का अधिकार देता है, लेकिन यह बलपूर्वक या धोखे से धर्म परिवर्तन का समर्थन नहीं करता। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर ने ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021' के तहत आरोपी चार लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के अनुरोध वाली याचिका खारिज करते हुए की। शिकायतकर्ता के मुताबिक, इन आरोपियों ने पैसा और मुफ्त इलाज की पेशकश कर लोगों का ईसाई धर्म में परिवर्तन करने का प्रयास किया।
'प्रचार करने का हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार है'
अदालत ने यह कहते हुए इस मामले को निरस्त करने से मना कर दिया कि ये आरोप गंभीर हैं। याचिका खारिज करते हुए अदालत ने सात मई के अपने आदेश में कहा, “भारत का संवैधानिक प्रारूप, संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इस अनुच्छेद में “मुक्त भाव से” धर्म का आचरण और प्रचार करने का हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार है। मुक्त भाव, धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वैच्छिक प्रकृति को रेखांकित करता है।” अदालत ने कहा, “संविधान बलपूर्वक या धोखे से धर्म परिवर्तन का समर्थन नहीं करता और ना ही यह धर्म के प्रचार की आड़ में बलपूर्वक या भ्रामक व्यवहार को ढाल प्रदान करता है।”
'धार्मिक स्वतंत्रता, सामाजिक ताना-बाना को अवरुद्ध ना करे'
अदालत ने कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता, सामाजिक ताना-बाना को अवरुद्ध ना करे और ना ही व्यक्ति और सांप्रदायिक सौहार्द को खतरे में डाले, यह सुनिश्चित करने के लिए ये सीमाएं आवश्यक हैं। वर्ष 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाए गए कानून पर अदालत ने कहा, “इस कानून का प्राथमिक उद्देश्य बहकाकर, बलपूर्वक, अनुचित प्रभाव डालकर, लालच देकर, धोखे से या शादी करके विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन को रोकना है।” अदालत ने इस मुद्दे पर भी गौर किया कि क्या एक पुलिस अधिकारी (एसएचओ) को 2021 के कानून की धारा चार के तहत “पीड़ित व्यक्ति” माना जा सकता है। यह धारा आमतौर पर केवल पीड़ित या उसके करीबी रिश्तेदार को शिकायत दर्ज कराने की अनुमति देती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि एसएचओ इस तरह की प्राथमिकी दर्ज कर सकता है क्योंकि इस कानून को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के प्रावधानों के साथ पढ़ा जाना चाहिए जोकि पुलिस को संज्ञेय अपराधों में कार्रवाई की अनुमति देता है।