...जब रामलीला देख अकबर की आंखें हुई थीं नम

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Sep, 2017 02:52 PM

when akbar saw the eyes of ramlila  he was wet

मोबाइल फोन और इंटरनेट के दौर में ‘रामलीला’ के प्रति युवाओं का आकर्षण भले ही कम हुआ हो मगर सदियों पहले इलाहाबाद की ऐतिहासिक रामलीला में मर्यादा पुरूषोत्तम के वनवास और राजा दशरथ की मृत्यु का करुण प्रसंग देखकर...

इलाहाबाद: मोबाइल फोन और इंटरनेट के दौर में ‘रामलीला’ के प्रति युवाओं का आकर्षण भले ही कम हुआ हो मगर सदियों पहले इलाहाबाद की ऐतिहासिक रामलीला में मर्यादा पुरूषोत्तम के वनवास और राजा दशरथ की मृत्यु का करुण प्रसंग देखकर बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की आंखे बरबस ही ‘नम’ हो गयीं। 

तत्कालीन नामचीन लेखक निजामुउद्दीन अहमद ने ‘तबकाते अकबरी’ में इलाहाबाद की रामलीला का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है ‘गंगा जमुनी’ एकता के पैरोकार बादशाह अकबर यहां आयोजित रामलीला में राम वनवास और दशरथ की मृत्यु लीलाएं देख कर भावुक हो गये थे और उनकी आंखे बरबस ही नम हो गयीं थी। रामलीला इस मार्मिक मंचन से बादशाह अकबर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने विशेष फरमान जारी कर वर्तमान सूरजकुण्ड के निकट कमौरी नाथ महादेव से लगे मैदान को रामलीला करने के लिए दे दिया था। 

मुगल शासकों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसने हिन्दू-मुस्लिम दोनों संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उन्हें साहित्य में भी रुचि थी। उन्होंने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों अैार ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत एवं हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। 

वरिष्ठ रंगकर्मी और इलाहाबाद विश्विवद्यालय के लेखा विभाग में कार्यरत सुधीर कुमार ने बताया कि रामलीला देखने से आधुनिक ङ्क्षहदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र के हृदय से रामलीला गान की उत्कंठा जगी। परिणामत: ङ्क्षहदी साहित्य को ‘रामलीला’ नामक चंपू की रचना मिली। गद्य-पद्य के मिश्रित काव्य को चंपू कहते हैं। उन्होंने बताया कि पूरे देश में रामलीला का मंचन और रावण का पुतला दहन होता है वहीं यहाँ अलग-अलग जगहों पर रोशनी से सराबोर भगवान की कलात्मक चौकियों का चलन है। चतुर्थी से लेकर दशमी तक मनमोहक रामदल शहर के लोगों और आगंतुकों को जकड़े रहता और शहर में गंगा-यमुनी तहजीब का एक अनूठा संगम भी देखने को मिलता था। मनमोहक सुन्दर एवं कलात्मक झाकियां इलाहाबाद के मानस पटल पर वर्ष भर के लिए एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं। 

सुधीर कुमार ने बताया कि आधुनिकता की चकाचौंध ने नयी पीढ़ी को हमारी संस्कृति, सभ्यता एवं संस्कारों से अलग कर दिया है। नयी पीढ़ी ने अपने आप को इंटरनेट, लैपटाप, मोबाइल की दुनिया तक ही सीमित कर लिया है। उसे बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं रह गया है। अब तो नयी पीढ़ी परम्परागत तीज त्योहार को भी भूलती जा रही है। इन लोगों को मेला, रामलीला या दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम समय की बर्बादी नजर आने लगी है। उन्होंने बताया कि पहले रामलीला महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य ‘रामायण’ की पौराणिक कथा पर आधारित था, लेकिन आज जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की कहानी और संवादों पर आधारित है।

वरिष्ठ रंगकर्मी ने बताया कि इलाहाबाद में रामलीला की शुरुआत कब से हुई इसका सही सही उल्लेख नहीं मिलता, मान्यताओं के अनुसार सन 1531 में गोस्वामी तुलसी दास ने श्री रामचरित मानस की रचना की तभी से काशी के निवासियों ने लीला की मंचन प्रारंभ किया। उन्हीं की प्रेरणा से बाद में इलाहाबाद स्थित रामानुजाचार्य मठ, जो वर्तमान में बादशाही मण्डी के पास है, में भी रामलीला का मंचन आरंभ हुआ। सन 1914 तक इलाहाबाद में बिजली उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण मशाल और पेट्रोमेक्स की रोशनी में ही सभी कार्यक्रम हुआ करते थे। 1915 में इलाहाबाद में बिजली की आपूर्ति आरंभ हुयी तो आयोजनों में जैसे क्रान्ति आ गयी। आस्था के साथ ही अब दशहरा पर्व में चमक-दमक भी आ गयी। चौकियों, रामलीला मैदानों और सड़कों पर विद्युत प्रकाश की सजावट से जो चकाचौंध पैदा हुई, इस पर्व की न सिर्फ इलाहाबाद बल्कि दूर-दूर तक ख्याति फैला दी।

पहले जहां सूर्यास्त होने के पहले ही भगवान राम लक्ष्मण और सीता की सवारी निकल जाती थी अब यह सवारी लकदक लाइटों के बीच मध्यरात्रि को निकलनी आरंभ हो गयी। इन श्रृंगार चौकियों का प्रारंभ 1916 से माना जाता है। पजावा की श्रृंगार चौकियों में भव्यता, कलात्मकता के साथ सादगी देखने को मिलती है वहीं पथरचट्टी की चौकियों में भव्यता, कलात्मकता के साथ भड़कीलापन अधिक दिखलाई पड़ता है। रामलीला का भी मंचन आधुनिक शैली में होने लगा है राम लीला का मंचन अब लाइट एवम साउंड के माध्यम से नए परिवेश में प्रारंभ कर गया है। 

उन्होंने बताया कि इलाहाबाद की रामलीला और रामदल निकलने की परंपरा सन 1824 से पहले की है, ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज है। विशप हैबर ने सन 1824 में ‘ट्रैवेल्स आफ विशप हैदर’ में यहां की रामलीला और रामदल के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरा वर्णन सन 1829 का है जब अंग्रेज महिला फैनी वाक्र्स ने अपनी इलाहाबाद यात्रा के दौरान चैथम लाइन में सिपाहियों द्वारा मंचित रामलीला और रावण-वध देखा था। 1829 की किला परेड रामलीला का भी वर्णन इन दस्तावेजों में है। ‘प्रयाग प्रदीप’ पुस्तक में इलाहाबाद के दशहरे मेले के अत्यन्त प्राचीन होने का वर्णन है। 

कुमार ने बताया कि पुराने समय से शहर में मेले के चार केन्द्र थे। दो नगर में, एक दारागंज तथा एक कटरा में, अब इनमें से कौन सबसे लंबे समय से सक्रिय है इसका वृतांत जानने के लिए कोई भी प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है लेकिन इन चारों केन्द्रों की वर्तमान रामलीला कमेटियां अपने को सबसे पुराने होने का दावा करती हैं। उन्होंने बताया कि पहले नाम मात्र के पैसों से लीला का आयोजन होता था अब एक-एक दशहरा कमेटी लाखों रूपए इन रामदलों को निकालने में खर्च करने लगी। इलाहाबाद के दशहरे के अवसर पर रामलीला के सिलसिले में जो विमान और चौकियाँ निकलती हैं, उनका ²श्य भव्य होता है। 

वरिष्ठ रंगकर्मी ने बताया कि सबसे पहले रामलीला का मंचन कब अैार कहां हुआ इसका भी कोई साक्ष्य नहीं है लेकिन कई सबूत ऐसे मिले हैं जो साबित करते हैं कि रामलीला का मंचन काफी पहले से किया जाता रहा है। दक्षिण-पूर्व एशिया में कई पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे साबित होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का मंचन हो रहा था। इतिहास गवाह है कि जावा के सम्राट ‘वलितुंग’ के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है यह शिलालेख 907 ई के हैं। इसी प्रकार थाईलैंड के राजा ‘ब्रह्मत्रयी’ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई में बताई गई है। 

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