चांद के शवाब में आने के साथ हुआ ‘टेसू-झेंझी' का विवाह, अब शुरू होगी हिंदुओं की ये बड़ी रस्म

Edited By Umakant yadav,Updated: 20 Oct, 2021 06:05 PM

the marriage of  tesu zhenzhi  happened with the arrival of the moon

महाभारत से जुड़े रोचक किस्से से शुरू हुई टेसू झेंझी की कहानी का उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से गहरा नाता है। टेसू झेंझी की शादी के बाद ही हिंदू धर्म में शादियों को दौर शुरू हो जाता है। शहर हो या देहात हर गली-मोहल्ले में पिछले एक पखवाड़े से गूंज रही...

इटावा: महाभारत से जुड़े रोचक किस्से से शुरू हुई टेसू झेंझी की कहानी का उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से गहरा नाता है। टेसू झेंझी की शादी के बाद ही हिंदू धर्म में शादियों को दौर शुरू हो जाता है। शहर हो या देहात हर गली-मोहल्ले में पिछले एक पखवाड़े से गूंज रही सुमधुर आवाज-अड़ता रहा टेसू, नाचती रही झेंझी, टेसू गया टेसन से पानी पिया बेसन से..., नाच मेरी झिंझरिया... कार्तिक पूर्णिमा के बाद साल भर के लिए थम गई है।    
  
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अनोखे प्रेम विवाह के लिए मंगलवार आधी रात के बाद चांद के शवाब पर रहने पर टेसू और झेंझी का विवाह सम्पन्न हुआ और इसी के बाद शादी-ब्याह का सिलसिला शुरू हो गया। इटावा में आज भी टेसू-झेंझी (झिंझिया) का विवाह बच्चे व युवा पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। हाथों में पुतला और तेल का दीपक लिए युवाओं की टीम घर-घर से पैसे मांगती है। चंदे के पैसे से टेसू-झेंझी का विवाह किया जाता है। टेसू-झेंझी का खेल नवमी से पूर्णमासी तक बच्चे खेलते हैं। 16 दिन तक बालिकाएं गोबर से चांद-तरैयां व सांझी माता बनाकर खेलती हैं। नवमी को सुअटा की प्रतिमा बनती है। पूर्णमासी की रात को टेसू-झेंझी का विवाह होता है। विवाह की तैयारी दशहरे से चौदस तक चलती है। पूर्णमासी को लडक़े थाली-चम्मच बजाकर टेसू की बारात निकालते हैं। वहीं लड़कियां शरमाती-सकुचाती झिंझिया रानी को भी विवाह मंडप में ले आती हैं। सात फेरे पूरे भी नहीं हो पाते और लड़के टेसू का सिर धड़ से अलग कर देते हैं। वहीं झेंझी भी अंत में पति वियोग में सती हो जाती है।  
    
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टेसू-झेंझी की कहानी महाभारत काल से जुड़ी है। इटावा के पास तहसील चकरनगर कभी चक्रनगरी कहलाती थी। ऐसा कहा जाता है कि यहीं पांडवों ने अपना अज्ञातवास बिताया था। यहीं भीम की शादी हिडिम्बा राक्षसी से हुई थी और भीम को घटोत्कच पुत्र पैदा हुआ था। राजा टेसू या बब्रावाहन घटोत्कक्ष का पुत्र था। जनश्रुति है कि महाभारत में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से टेसू का वध किया था। जब भीम को पता चला कि टेसू मेरा नाती है, तब श्रीकृष्ण ने टेसू को जीवित कर दिया था और वरदान दिया कि तुम्हारी शादी के बाद ही औरों की शादियॉ होंगी। तब से पूर्णमासी को टिसुआरी पूनो कहते हैं। इसी तिथि के बाद शादी-विवाह के शुभ कार्य प्रारंभ होते हैं।      

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इटावा समेत कई इलाकों में दशहरे के मेले से बच्चे झेंझी और टेसू के नाम की मटकी खरीदते हैं। कुम्भकार झेंझी लडक़ी और टेसू लडक़ा बनाते हैं। मटकी पर झेंझी को सलोनी सी लडक़ी के रूप में और टेसू को मछधारी युवक के रूप में रंगा जाता है। यह तो किसी को नहीं मालूम कि टेसू और झेंझीं के विवाह की लोक परंपरा कब से पड़ी पर यह अनोखी, लोकरंजक और अछ्वुद है परंपरा बृजभूमि को अलग पहचान दिलाती है,जो बृजभूमि से सारे उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक गांव गांव तक पहुंच गई थी जो अब आधुनिकता के चक्कर में और बड़े होने के भ्रम में भुला दी गई है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह परंपरा महाभारत के बीत जाने के बाद प्रारम्भ हुई होगी क्योंकि यह लोकजीवन में प्रेम कहानी के रूप में प्रचारित हुई थी इसलिए यह इस समाज की सरलता और महानता प्रदर्शित करती है । एक ऐसी प्रेम कहानी जो युद्ध के दुखद पृष्ठभूमि में परवान चढ़ने से पहले ही मिटा दी गई।  
   
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विजयादशमी के दिन से शुरू होकर यह शादी का उत्सव यद्यपि केवल पांच दिन ही चलता है और कार्तिक पूर्णिमा को शादी सम्पन्न हो जाने के साथ ही समाप्त हो जाता है । दशहरा पर रावण के पुतले का दहन होते ही, बच्चे टेसू लेकर निकल पड़ते हैं और द्वार-द्वार टेसू के गीतों के साथ नेग मांगते हैं, वहां लड़कियों की टोली घर के आसपास झांझी के साथ नेग मांगने निकलती थे। अब समय के साथ बदलाव आया है। अब कम लोग ही इस पुरानी परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं। शरद पूर्णिमा की रात में मनाए जाने वाले इस विवाह समारोह में महिलाएं मंगलगीत गाती थीं। किवदंती हैं कि भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को महाभारत का युद्ध देखने आते समय झांझी से प्रेम हो गया। उन्होंने युद्ध से लौटकर झांझी से विवाह करने का वचन दिया, लेकिन अपनी मां को दिए वचन, कि हारने वाले पक्ष की तरफ से वह युद्ध करेंगे के चलते वह कौरवों की तरफ से युद्ध करने आ गए और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया। वरदान के चलते सिर कटने के बाद भी वह जीवित रहे। युद्ध के बाद मां ने विवाह के लिए मना कर दिया। इस पर बर्बरीक ने जल समाधि ले ली। झांझी उसी नदी किनारे टेर लगाती रही लेकिन वह लौट कर नहीं आए।

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