Edited By Punjab Kesari,Updated: 09 Mar, 2018 07:49 PM
उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को दिए जा रहे आरक्षण को हाईकोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के मामले में राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष रविंद्र जुगरान ने राज्य सरकार से सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मांग की है।
देहरादून: उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को दिए जा रहे आरक्षण को हाईकोर्ट द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के मामले में राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष रविंद्र जुगरान ने राज्य सरकार से सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मांग की है। प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत में रविंद्र जुगरान ने कहा कि अगर इस मामले में सरकार ने एक्ट बनाया होता, तो संभवत: आज कोर्ट इतना सख्त रुख न अपनाता। इस मामले में उन्होंने राजभवन की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए।
जुगरान ने कहा कि पिछले तीन साल से संबंधित विधेयक राज्यपाल के अनुमोदन का इंतजार कर रहा है। आज तक इस पर निर्णय नहीं लिया जा सका है। राज्य गठन के बाद सभी सरकारों ने अपने-अपने शासनकाल में राज्य आंदोलनकारियों को सम्मान देने की मंशा से घोषणाएं व शासनादेश निर्गत किए। लेकिन, उनको कानूनी रूप न देने की चूक कर दी। इससे उनको आसानी से उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाने लगी।
अगर सरकार इन शासनादेशों को एक्ट बनाती, तो इन्हें कोर्ट में चुनौती नहीं दी सकती थी। अगर दी भी जाती, तो कोर्ट का रवैया इतना सख्त नहीं होता। उन्होंने कहा कि क्षैतिज आरक्षण का मामला पिछले पांच साल से उच्च न्यायालय में लंबित था। भारी जन दबाव के चलते पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने दस फीसदी क्षैतिज आरक्षण दिए जाने का विधेयक विधानसभा से पारित कराकर राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया था। राजभवन ने तीन साल बीतने के बाद भी इसका अनुमोदन नहीं किया जिसके कारण यह एक्ट नहीं बन पाया।
जुगरान ने कहा कि राजभवन की असंवेदनशीलता के चलते जनभावनाओं का अनादर हुआ है। विगत वर्षों में राज्य के लाखों शिक्षित, प्रशिक्षित नौजवानों को इसका नुकसान उठाना पड़ा। इस मामले में राजभवन को अपना स्पष्टीकरण देना चाहिए। इस स्थिति के लिए राज्यपाल ही सबसे ज्यादा उत्तरदायी हैं। उन्होंने कहा कि आरक्षण राज्य का विषय है। राज्य की विधायिका को संविधान ने महाधिकार दिया है। वह अपने राज्य में किसको कितना और कितने समय में आरक्षण देती है, उसका अधिकार है। उन्हें आरक्षण दिया जाए। इसे हमेशा नहीं दिया जाता। इसके लिए पदों की न्यूनतम संख्या देखकर निर्धारण किया जाता है। ऐसे में इस मामले में इतनी हाय-तौबा क्यों?