जाति पर नहीं, विकास पर दांव लगाएगा उत्तर प्रदेश!

Edited By ,Updated: 22 Jan, 2017 01:59 PM

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वक्त बदल रहा है, हवा बदल रही है, तो असर चुनावी मिजाज पर भी पड़ा है। यह सही है कि सभी पार्टियां खासकर राज्य चुनावों में जाति विशेष को साधने में ज्यादा सिर खपाती हैं।

लखनऊ: वक्त बदल रहा है, हवा बदल रही है, तो असर चुनावी मिजाज पर भी पड़ा है। यह सही है कि सभी पार्टियां खासकर राज्य चुनावों में जाति विशेष को साधने में ज्यादा सिर खपाती हैं। जाति को लेकर इनका अपना ही गुना-भाग चलता रहता है। वैसे माना जाता है कि अगर इस गणित पर भरोसा भी कर लिया जाए, तो कौन जीत रहा है यह पता लगाना वास्तव में बहुत ही आसान हो जाए, लेकिन यह सच नहीं है। इससे उलट अगर इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो हमेशा ऐसा नहीं हुआ कि जिस दल के साथ जाति विशेष देखी गई हो और वही जीता हो। हालांकि, इस बार भी उत्तर प्रदेश में पार्टियां जातियों को आगे रखकर अपना गणित खेलने में लगी हैं, लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि उत्तर प्रदेश में लोग अब जाति से ऊपर उठकर विकास के दायरे में भी रहकर सोचने लगे हैं।

प्रदेश की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश करने जा रही
यादवों के मुखिया मुलायम सिंह हैं, तो जाटवों की पार्टी के रूप में बसपा को देखा जाता है। वहीं, रालद को जाटों की पार्टी समझा जाता है। लेकिन वोटों का गणित विज्ञान जाति के अंकगणित से कहीं ज्यादा ऊपर है। यह बात यूपी चुनाव को जटिल बना देती है। अब यह आप जानते ही हैं कि मंडल और मंदिर ने नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति को पूरी तरह से बदल दिया। यहां की राजनीति पर ये दोनों ही मुद्दे एक बड़े दौर तक हावी रहे। असर अभी भी पूरी तरह मिटा भी नहीं है। इन दोनों विषयों और दलित लामबंदी ने मिलकर पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों को बदलकर रख दिया। इस बदलाव में जहा कांग्रेस गर्त में चली गई, वहीं सपा और बसपा का उदय हुआ, तो एक दौर में लहर बीजेपी की ओर भी जमकर चली। अब जबकि प्रदेश एक और बड़े और अहम चुनाव के लिए तैयार हैं, तो प्रदेश की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश करने जा रही है। इसके परिणाम लंबे समय के लिए प्रदेश की दिशा-दशा तय करने पर बड़ा असर डालेंगे।

चुनाव में वोटिंग के तौर-तरीकों में किया गया बदलाव महसूस
सच यह है कि आज के दौर में मंदिर और मंडल के मुद्दे पीछे छूट चुके हैं। इनमें से कोई सा भी मुद्दा पूूर्व में वोट जुटाने के लिए अपने आप में काफी नहीं है। और कुछ ऐसा ही दलित विचार के साथ कहा जा सकता है। यही वजह है कि हर बार चुनाव में वोटिंग के तौर-तरीकों में बदलाव महसूस किया गया है। दलितों के अलावा ओबीसी और अगड़ों की वोटिंग पसंद बदलती रही है। साल 2002 में त्रिशंकु विधानसभा में समाजवादी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, तो वहीं साल 2007 में बसपा सबसे बड़ी पार्टी बनी। साल 2012 में सपा एक बार फिर से सबसे बड़ी पार्टी साबित हुई। अगर साल 2014 में आम चुनाव की बात करें, तो सभी ने देखा कि भाजपा के समर्थन में कैसी लहर चली। और अगर इस उत्तर प्रदेश की 420 विधानसभा सीटों के संदर्भ में बात करें, तो भाजपा ने 320 सीटों पर बाजी मारी। इसीलिए हुए इन बदलावों को देखकर कहा जा सकता है कि किसी पार्टी के लिए जाति या समुदाय के वोटों के स्थिर होने की ज्यादा समीक्षा नहीं की जा सकती। अब सपा का ही उदाहरण लें।

यादव समुदाय ही सपा के मुख्य वोटर बनकर रह गए
ऐसा माना जाता है कि यह ओबीसी समुदाय के लिए स्वाभाविक पसंद है, लेकिन हालिया चुनावों में ऐसा नहीं देखा गया है। केवल यादव समुदाय ही सपा के मुख्य वोटर बनकर रह गए हैं। गैर यादव-ओबीसी वर्ग ने दूसरे दलों को वोट देने में कोई झिझक महसूस नहीं की है। साल 2014 के आम चुनाव में इस वर्ग सहित कुर्मी, जाट और बाकी दूसरे समुदाय ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया। अब आश्चर्यजनक तौर पर सपा को छोड़कर शेष सभी पार्टियां खासकर भाजपा इस वर्ग को अपना वोटबैंक बनाने में जुटी है। सभी यादव भी सपा के लिए वोट नहीं करते, यह भी एक सच है। साल 2007 के चुनाव में 72 प्रतिशत यादवों ने सपा के पक्ष में मतदान किया, वहीं साल 2012 में यह आंकड़ा 66 फीसदी रह गया। हालांकि, साल 2012 के चुनाव में सपा के पक्ष में यादवों ने खुलकर वोटिंग की, लेकिन 2014 आम चुनावों में भाजपा 27 फीसदी यादवों के वोट हासिल करने में कामयाब रही।

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