यूपी की पसंद अभी ‘गर्भ’ में है!

Edited By ,Updated: 20 Feb, 2017 06:37 PM

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उत्तर प्रदेश के चुनाव की दिशा व और दशा ज्यों-ज्यों आगे की ओर बढ़ती जा रही है, प्रदेश का चुनाव और ज्यादा ‘रहस्यमयी’ और रोमांचक होता जा रहा है।

लखनऊ:उत्तर प्रदेश के चुनाव की दिशा व और दशा ज्यों-ज्यों आगे की ओर बढ़ती जा रही है, प्रदेश का चुनाव और ज्यादा ‘रहस्यमयी’ और रोमांचक होता जा रहा है। कब हवा का रुख किस दिशा में बदल जाए, कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। अब आप यह उदाहरण ही देख लें। कांग्रेस उपाध्यक्ष और अखिलेश यादव ने चुनाव से पहले ‘नई दोस्ती’ के जरिए पूरा माहौल ही बदल दिया। अचानक से ही फिजा में ‘यूू.पी. को ये साथ पसंद है’ गीत बजा, तो लगा कि यह माहौल में अलग ही रंग भरने जा रहा है, लेकिन बता दें कि तीसरे चरण के मतदान से पहले यह नारा वोटरों के बीच दम तोड़ता दिखाई पड़ा। मतलब यह है कि वोटरों के बीच ‘नई दोस्ती’ व नारे का असर उतना दिखाई नहीं पड़ा, जितना शुरूआत में दिख रहा था। कुल मिलाकर बात यह है कि उत्तर प्रदेश की पसंद अभी गर्भ में है। अब यह पसंद किसके खाते में आती है, यह भी 11 मार्च को साफ हो जाएगा।

तीसरे चरण तक दम तोड़ता दिख रहा सपा-कांग्रेस का नारा
अब यह तो आप जानते ही हैं कि दोनों पार्टियों के मैनेजमैंट ने ये लाइनें सलमान खान की पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म सुल्तान के गाने-‘बेबी को बेस पसंद है’- से प्रेरित होकर तैयार की थीं। हालांकि, गठबंधन की प्रमुख सीटों-यादवों और मुस्लिम बाहुल्य इलाकों- में यह धुन पसंद की जा सकती है, लेकिन प्रदेश के संपूर्ण लिहाज से कहा जाए, तो जनता-जर्नादन इस बात के साथ सामने आ सकती है कि ‘यू.पी. को कुछ और ही पसंद’ है या कहा जा सकता है कि यू.पी. की पसंद अभी गर्भ में ही है। यह सच है कि अखिलेश यादव के खिलाफ वास्तव में कोई सत्ता विरोधी लहर के संकेत नहीं हैं, लेकिन फिर से सरकार बनने की प्रचारित भावना का लोगों में साफ अभाव दिखाई पड़ रहा है।

वहीं, कांग्रेस-सपा गठबंधन का मुस्लिमों को रिझाने के बहुत ज्यादा प्रयास ने पूरे प्रदेश में छिपी ङ्क्षहदुत्व की भावना को फिर से जगा दिया है। शायद रणनीतिकारों ने मुस्लिम वोटों का आकलन करने में गलती कर दी, लेकिन यह भी तथ्य है कि चुनाव में केवल मुस्लिम ही वोट नहीं करते। ठीक ऐसी ही गलती मायावती ने भी की। इसके चलते थोड़ी खंरोंच आई है और गैर-यादव व गैर-जाटव समुदाय की हिंदुत्व भावनाएं सामने जरूर आएंगी। हालांकि, हालात 2014 चुनाव जैसे नहीं हैं, लेकिन यह कारक निश्चित तौर पर जमीन पर दिखाई पड़ रहा है और यह भाजपा के पक्ष में संतुलन को अच्छा-खासा झुका सकता है।

जमीन पर दिखाई पड़ रही है भाजपा के पक्ष में लहर
नोएडा को अपवाद मान लिया जाए, तो अभी तक वोटिंग प्रतिशत बहुत ही अच्छा रहा है। यह इस बात का संकेत है कि सभी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में वोटिंग करने के लिए उमड़ रहे हैं। प्रदेश के समाज के और जातियों के विभिन्न लोगों की राय के रूप में यह साफ तौर पर सामने आया है कि भाजपा को फायदा होने जा रहा है। अगर पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुछ बहुत ही ज्यादा मुस्लिम बाहुल्य विधानसभा सीटों को छोड़ दें, तो बाकी जगहों पर यह भाजपा है, जो सभी पार्टियों और उम्मीदवारों के खिलाफ लड़ रही है। साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव से तुलना करें, तो यह एक बड़ा बदलाव है। भाजपा के गैर-यादव ओ.बी.सी. तबके को लुभाने का लगातार प्रयास काम करता दिखाई पड़ रहा है।

भाजपा का बार-बार वोटरों के बीच यह प्रहार करना कि अखिलेश यादव और सपा सरकार केवल एक जाति (यादव) और एक ही समुदाय (मुस्लिमों) की हितैषी है, वोटरों पर असर छोड़़ता दिख रहा है। अगर आप गाजियाबाद, कन्नौज, कैराना, बागपत, रायबरेली, अमेठी, अमरोहा, शामली या किसी अन्य दूसरी जगह के लोगों से बात करेंगे, तो लोगों को खुले तौर पर यह कहते पाएंगे कि पुलिस और पब्लिक सर्विस कमीशन सहित सभी तरह की नियुक्तियों और पुलिस और प्रशासन में स्टेशन ऑफिसर सहित सभी महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में यादवों को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचाया गया, या उनका समर्थन किया गया। लोगों का नजरिया कुछ इस तरह का बन चुका है। और चुनाव में आखिरी में सच, झूठ, और आधा सच नहीं, बल्कि नजरिया ही महत्वपूर्ण हो जाता है। नेता और मुद्दों के इर्द-गिर्द यह जनता का नजरिया ही होता है, जो खेल को पूरी तरह से बदल देता है। हर किसी की शिकायत यही है कि सपा सरकार में बस यादवों की सुनी जाती है।
 

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