Edited By Nitika,Updated: 08 Jun, 2021 09:00 PM
वरिष्ठ साहित्यकार मुकेश नौटियाल ने कहा कि दक्षिण और उत्तर भारत में खासकर भाषा को लेकर बहुत ज्यादा भ्रम है। भाषा ने हमारे बीच अजीब तरह के अवरोध खड़े किए हैं लेकिन मुझे दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान भाषा के कारण संवाद में कोई समस्या नहीं आई और न ही...
नैनीतालः वरिष्ठ साहित्यकार मुकेश नौटियाल ने कहा कि दक्षिण और उत्तर भारत में खासकर भाषा को लेकर बहुत ज्यादा भ्रम है। भाषा ने हमारे बीच अजीब तरह के अवरोध खड़े किए हैं लेकिन मुझे दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान भाषा के कारण संवाद में कोई समस्या नहीं आई और न ही ऐसा लगा कि भाषा की वजह से आपको नजरअंदाज किया जाता हो।
नौटियाल ने कुमाऊं विश्वविद्यालय की रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ द्वारा ‘कालड़ी से केदार : एक सांस्कृतिक दस्तावेज' विषय पर फेसबुक लाइव के जरिए आयोजित आनलाइन चर्चा में उक्त विचार व्यक्त किए। वह अपने यात्रा वृत्तांत ‘कालड़ी से केदार' के लिए की गई दक्षिण भारत की यात्रा से जुड़े संस्मरण साझा कर रहे थे। तमिलनाडु में एक शिक्षक से मुलाकात का जिक्र करते हुए कहा कि मैंने उनसे पूछा कि आपको हिंदी को लेकर क्या समस्या है? वह बोले हमें तो कोई समस्या नहीं है लेकिन आपको तमिल, कन्नड़, तेलुगु से क्यों समस्या है? क्या आपके स्कूलों में इन्हें पढ़ाया जाता है? मैं निरूत्तर हो गया। आदिगुरू शंकराचार्य के जन्मस्थान केरल के कालड़ी गांव से उनके निर्वाण स्थल केदारनाथ तक की लेखक की यात्रा अत्यंत जानकारीपूर्ण एवं शोधपरक है। यह यात्रा वृत्तांत अपने नाम के अनुरूप उत्तर से दक्षिण को जोड़ने का एक नायाब पुल है। एक ऐसी सांस्कृतिक यात्रा जिसका स्थाई महत्व है। अपनी यात्रा के दौरान प्रत्येक मिलने वाले से लेखक का संवाद इस पुस्तक की बड़ी विशेषता है।
नौटियाल ने कहा कि दक्षिण भारतीय भाषाओं का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। संस्कृति को लेकर दक्षिण भारत के लोगों का आग्रह बहुत गहरा है। हम उत्तर भारतीय लोग हवा में बहकर अपनी मूल पहचान और मूल चरित्र खो देते हैं। दक्षिण भारतीय अपनी सांस्कृतिक जड़ों को लेकर बहुत संवेदनशील हैं। कार्यक्रम के दूसरे चरण में कथाकार मुकेश नौटियाल ने अपने संग्रह‘धम्मचक्र के उस पार'से बहुचर्चित कहानी ‘पितृ-कूड़ी में गाँव'और सिलवर लेक' का पाठ किया।‘पितृ-कूड़ी में गाँव'पित्रों की शांति के लिए बनाए गए स्थान को समर्पित कहानी है। गांव में जब कोई गुजरता है तो तेरहवीं के दिन उसकी याद में एक पत्थर पितृ पीपल की ओट में आले में रख दिया जाता है। पितृ-कूड़ी कभी नहीं भरती। उसमें हमेशा जगह बनी रहती है। गांव में पितृ-कूड़ी जैसी समानता और समरसता का दूसरा कोई उदाहरण नहीं है। आदमी अंतत: मिट जाता है। वहां घास के बीच मुझे पीपल की एक पौध नजर आई। घास हटाकर मैंने मुआयना किया तो पता चला कि पीपल की एक नन्ही डाल वहां उग आई है। कोई मिटता नहीं। बस रूप और जगह बदल लेता है। ‘सिलवर लेक' अजन्मी बेटियों का दर्द बयां करती मार्मिक कहानी है।
बेटियां जो हमारी दुनिया से रूठ जाती हैं, आंचरियों का ताल उन्हें प्रश्रय देता है। जीने की उत्कंठा के बावजूद जो बेटियां जी नहीं पाती, वह आँचरी बन जाती हैं। लेखक का मानना है कि बेटियों की हत्या हमारे समय की एक बड़ी सच्चाई है। हम अपने वर्तमान को नजरअंदाज नहीं कर सकते।