भावुक अपील से किसान आंदोलन को फिर से खड़ा करने में सफल हुए राकेश टिकैत

Edited By Ramkesh,Updated: 07 Feb, 2021 12:36 PM

tikait succeeded in reviving the farmers movement with a passionate appeal

दिल्ली की सीमाओं पर केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे लगभग तीन दर्जन किसान संगठनों में से राकेश टिकैत एक संगठन का चेहरा थे, लेकिन 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के दौरान दिल्ली में हुईं घटनाओं के बाद उन्हें एक नयी पहचान मिली और आज वह इस किसान...

यूपी डेस्क: दिल्ली की सीमाओं पर केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे लगभग तीन दर्जन किसान संगठनों में से राकेश टिकैत एक संगठन का चेहरा थे, लेकिन 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के दौरान दिल्ली में हुईं घटनाओं के बाद उन्हें एक नयी पहचान मिली और आज वह इस किसान आंदोलन का सबसे प्रमुख चेहरा बन गए हैं। गणतंत्र दिवस के दिन जब दिल्ली में हिंसा की घटनाएं हुईं और कुछ प्रदर्शनकारियों ने लालकिले के गुंबदों तथा राष्ट्रीय ध्वज के स्तंभ पर जब धार्मिक झंडा लगा दिया तो देश में भड़की भावनाओं के चलते ऐसा लगा कि किसान आंदोलन अब खत्म हो चुका है, लेकिन इस विकट प्रतिकूल परिस्थिति में राकेश टिकैत अपनी भावुक अपील से आंदोलन को फिर से खड़ा करने में सफल रहे है।

दिल्ली की सीमाओं से लौटे किसान फिर से प्रदर्शन स्थलों पर पहुंच गए। भारतीय किसान यूनियन के कद्दावर नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के निधन के बाद बालियान खाप की परंपरा के अनुसार उनके सबसे बड़े पुत्र नरेश टिकैत को पगड़ी पहनाकर उनकी विरासत सौंपी गई थी, लेकिन उनके भाई राकेश टिकैत ने पिछले ढाई महीने से चल रहे किसान आंदोलन में हर दिन बदलते घटनाक्रम के साथ एक मजबूत किसान नेता के तौर पर अपने पिता की विरासत संभाली है। सितंबर के अंतिम सप्ताह में कृषि संबंधी तीन विधेयकों को लागू किया गया था और कुछ ही समय में इन विधेयकों को लेकर विरोध के स्वर उभरने लगे। नवंबर का अंत आते-आते किसान संगठन दिल्ली की सीमा पर पहुंचने लगे और देश का अन्नदाता देश की सरकार से टकराने की जिद ठान बैठा।

सरकार से कई दौर की बातचीत भी हुई और कई अन्य किसान नेताओं के साथ राकेश टिकैत भी किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर इस बातचीत में शामिल हुए। उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली गांव में 4 जून 1969 को जन्मे राकेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता हैं, लेकिन संगठन से जुड़े तमाम अहम फैसले वही करते हैं। किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने जिस तरह से किसानों की मांगों को व्यावहारिक तरीके से सरकार और मीडिया के सामने रखा उसने आंदोलन को एक नयी धार दे दी। फिर चाहे वह किलेबंदी को लेकर सरकार पर तंज करता उनका बयान हो या गेंहू का मूल्य तय करने को लेकर उनके द्वारा सुझाया गया फॉर्मूला, हर बार वह किसानों के हित की बात पुरजोर तरीके से रखते नजर आए।

26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद गाजियाबाद प्रशासन ने 28 जनवरी की रात को किसान आंदोलनकारियों को गाजीपुर बॉर्डर को खाली करने का आदेश जारी किया था। बिजली-पानी बंद कर दिया गया और तंबू उखडऩे लगे। वहां मौजूद किसान बेहद मायूसी में वापसी का मन बना रहे थे। उस समय राकेश टिकैत का एक अलग ही रूप देखने को मिला। सरकार से हर कीमत पर टकराने और अपनी मांगें डंके की चोट पर मनवाने की बात कहने वाले राकेश टिकैत अचानक बेहद बेबसी के आलम में मंच पर बैठ गए और फफक-फफक रोने लगे। रुंधे गले से कही उनकी कुछ बातें भले लोगों को समझ में नहीं आईं, लेकिन उन्हें इस स्थिति में देखकर घर वापसी के लिए उठे कदम वापस लौट आए।

राकेश टिकैत महेन्द्र सिंह टिकैत के चार बेटों में दूसरे नंबर के बेटे हैं। उन्होंने मेरठ विश्वविद्यालय से एम.ए. तक पढ़ाई की है। वह 1992 में दिल्ली पुलिस में कांस्टेबल के तौर पर भर्ती हो हुए थे। इस दौरान उनके पिता कई किसान आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे और उनका संगठन उत्तर प्रदेश तथा उत्तर भारत ही नहीं, बल्कि पूरे देश में अपना असर दिखा रहा था। लिहाजा 1993 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने पिता के नेतृत्व में लालकिले पर चल रहे किसान आंदोलन का हिस्सा बनने का फैसला किया। पिछले लगभग तीन दशक में किसानों के हित की लड़ाई लड़ते हुए वह दर्जनों बार जेल गए।

मध्य प्रदेश, कभी राजस्थान तो कभी दिल्ली में आंदोलनों के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। ज्यादातर मौकों पर तो उन्हें गिरफ्तारी के तत्काल बाद रिहा कर दिया गया, लेकिन मध्य प्रदेश में किसानों की भूमि के अधिग्रहण के विरोध में चलाए गए आंदोलन के दौरान उन्हें सवा महीने से अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा। किसान आंदोलन को लेकर अलग-अलग लोगों की राय अलग हो सकती है, लेकिन इसने किसानों की एक अलग छवि पेश की है। दूसरों का पेट भरने के लिए सर्दी, गर्मी, बरसात में सब कुछ सहने वाले किसान अब कुछ कहने को आमादा हैं। 

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