Edited By Tamanna Bhardwaj,Updated: 16 Aug, 2018 05:28 PM
प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर उन्हें जीवंत करने वाली लोकगीतो की रानी ‘कजरी’ आधुनिक परंपरा की चकाचौंध में बिसरा दी गई है...
इलाहाबाद: प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर उन्हें जीवंत करने वाली लोकगीतो की रानी ‘कजरी’ आधुनिक परंपरा की चकाचौंध में बिसरा दी गई है।
सावन शुरू होते ही पेड़ों की डाल पर पडऩे वाले झूले और महिलाओं द्वारा गाई जाने वाली कजरी अब आधुनिक परंपरा और जीवन शैली में विलुप्त सी हो गई है। एक दशक पहले तक सावन शुरू होते ही गांवों में कजरी की जो जुगलबंदी होती थी, वह अब कहीं नजर नहीं आती है। घर की महिलाएं और युवतियां भी कजरी गाते हुए झूले पर नजर आती थीं, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है।
सावन के शुरूआत से ही कजरी के बोल और झूले गांव-गांव की पहचान बन जाते थे। झूला पड़ै कदंब की डाली, झूलैं कृष्ण मुरारी ना के बोल से शुरू होने वाली कजरी दोपहर से शाम तक झूले पर चलती रहती थी। कजरी के गायन में पुरुष भी पीछे नही थे। दिन ढलने के बाद गांव में कजरी गायन की मंडलियां जुटती थीं। देर रात तक कजरी का दौर चलता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में कजरी की खासी धूम हुआ करती थी, लेकिन अब इसको जानने वाले लोग गिने चुने रह गये हैं।
शिक्षिका बिनोदनी पाण्डेय ने बताया कि समय के साथ पेड़ गायब होते गये और बहुमंजिला इमारतों के बनने से घर के आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले और कजरी गीत भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब दिखायी नहीं देती। प्रकृति के साथ जीने की परंपरा थमी जा रही है और झूला झूलने का दौर भी अब समाप्त हो रहा है।