जैव विविधता के बिना मानव जीवन की कल्पना बेमानी

Edited By Anil Kapoor,Updated: 05 Jun, 2020 12:10 PM

imagining human life without biodiversity is meaningless

जैव विविधता का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। दरअसल यह जीवों के बीच पायी जाने वाली वह विभिन्नता है जो प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनके पारितंत्रों की विविधता को समाहित करती है। चूंकि मानव संस्कृति और पर्यावरण का साथ- साथ विकास हुआ है,...

यूपी डेस्क:  जैव विविधता का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। दरअसल यह जीवों के बीच पायी जाने वाली वह विभिन्नता है जो प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनके पारितंत्रों की विविधता को समाहित करती है। चूंकि मानव संस्कृति और पर्यावरण का साथ- साथ विकास हुआ है, यदि इस दृष्टि से देखें तो सांस्कृतिक पहचान हेतु जैव- विविधता का होना अवश्यंभावी है। यह पारितंत्र को स्थिरता तो प्रदान करती ही है, पारिस्थितिक संतुलन को बरकरार रखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। पारितंत्र विविधता पृथ्वी पर पायी जाने वाली पारितंत्रों यानी ईकोसिस्टम में उस विभिन्नता को कहते हैं जिसमें प्रजातियों का वास होता है, जैसे -हजयील, मरूभूमि,मरूस्थल, नदी, तालाब आदि जल संग्रहण क्षेत्र।

यदि इसकी विशेषताओं का सिलसिलेवार वर्णन किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि इसके बिना मानव जीवन की कल्पना ही बेमानी है। कारण यह न केवल भोजन, लकड़ी, कपड़ा, ईंधन, चारे की जरूरत को पूरा करती है, खेती की पैदावार ब-सजय़ाने के साथ ही रोग रोधी, कीट-पतंगे रोधी फसलों के उत्तरोत्तर विकास में सहयोगी होती है, वानस्पतिक औषधीय जरूरतों की पूर्ति, पोषक चक्र को गतिमान रखने और पर्यावरणीय प्रदूषण के निस्तारण में सहायक होती है। जैव विविधता में संपन्न वनीय पारितंत्र में कार्बन डाई ऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक तत्व होते हैं। यह मृदा निर्माण के साथ-साथ उसके संरक्षण, उसकी संरचना के सुधार- विकास, जल धारण क्षमता और पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने, जलीय चक्र को गतिमान रखने में ही नहीं बल्कि जल संरक्षण में भी सहायक की भूमिका निबाहती है। इसकी महत्ता इस बात से और भी परिलक्षित होती है कि वर्तमान में तकरीब 30 से 40 फीसदी से भी अधिक औषधियों को उष्णकटिबंधीय वनस्पतियों से प्राप्त किया जाता है।

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि जैव- विविधता प्रकृति अध्ययन की दिशा में सर्वोत्तम प्रयोगशाला है, मानव सभ्यता के विकास की धुरी है,तो कुछ गलत नहीं होगा।जहां तक जैव- विविधता के इतिहास का प्रश्न है, यह करीब 400 करोड़ से अधिक वर्षों के विकास का परिणाम है। और जब प्रजातियों का सवाल आता है, तो समूची दुनिया में इनकी तादाद कितनी है, इसके बारे में अभी तक कोई स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं है। हां तकरीबन 30 से 10 करोड़ के बीच इनकी तादाद का अनुमान जरूर है। अभी तक दुनिया में 14 लाख 35 हजार 662 प्रजातियों की पहचान की गई है। वह बात दीगर है कि अभी भी हजारों- लाखों प्रजातियां ऐसी हैं जिनकी पहचान बाकी है।

अभीतक जिन प्रजातियों की पहचान कर ली गई है, उनमें 7 लाख 51 हजार कीटों की, 2 लाख 48 हजार पौधों की, 2 लाख 81 हजार जंतुओं की, 68 हजार कवकों की, 26 हजार शैवालों की, 4 हजार 800 जीवाणुओं तथा एक हजार विषाणुओं की हैं। इनके अलावा 343 मछलियों की, 50 जलथल चारी, 170 सरीसृपों की, 1355 अकशेरुकी, 1037 पक्षियों और 497 स्तनपायी हैं। दुखद यह है कि हर साल पारितंत्रों के क्षय के कारण तकरीब 27 हजार प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इनमें उष्णकटिबंधीय छोटे- छोटे जीवों की असंख्य प्रजातियां शामिल हैं।

गौरतलब है कि धरती के पहले के तकरीब 50 करोड़ सालों के इतिहास में छह बड़ी प्रलय कहें या तबाही के चलते दुनिया की असंख्य प्रजातियों के नष्ट होने के साक्ष्य मिलते हैं। यदि वर्तमान परिदृष्य पर नजर डालें तो पता चलता है कि दुनिया में पौधों की तकरीब 60 हजार तथा जंतुओं की 2 हजार से अधिक प्रजातियों के अस्तित्व पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। मानवीय गतिविधियों, वैश्विक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के चलते यदि जैव- विविधता के क्षरण की गति पर अंकुश नहीं लगा तो 2050 तक दुनिया की एक चौथाई प्रजातियों का सदासदा के लिए खात्मा हो जायेगा। सबसे बड़ी चिंता का सबब यही है। यह मानव अस्तित्व के लिए भीषण खतरा है। ब-सजय़ता पर्यावरण प्रदूषण जैव- विविधता के ह्वास का सबसे बड़ा प्रमुख कारण तो है ही, इसमें कीटनाशकों के अलावा औद्यौगिक रसायन तथा अपशिष्ट मुख्यतः उत्तरदायी हैं। इसमें आवास विनाश और विखण्डन, अति शोषण, विदेशी मूल के पौधों का हमला कहें या रोपण, वन्य जीवों का शिकार, जंगलों का बेतहाशा कटान, अति चराई, चारागाहों का सर्वनाश, शोध, सौंदर्य प्रसाधनों- यौन शक्ति के बढ़ जाने की खातिर वन्यजीवों की बेतहाशा हत्यायें, जंगलों में लगने वाली आग,परभक्षी प्रजातियों का नियंत्रण व बीमारियां आदि का भी अहम योगदान है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

इस सम्बंध में सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इस दिशा में सबसे अहम् कार्य जैविक संसाधनों के प्रबंधन का है। दावे तो बहुत किये जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। जबकि संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण, उनकी विलुप्ति पर अंकुश हेतु प्रभावी नीति निर्माण, योजना व प्रबंधन, वन्य प्रजातियों के आवास की दिशा- दशा चिन्हित कर उनकी पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था का प्रबंध, खाद्य फसलों, पौधों, चारा, मवेशियों, वन्य जीवों के संरक्षण, वन्य जीवों के आवासों, उनके भोजन, प्रजनन व उनके बच्चों के संरक्षण,पालन पोषण, वन्यजीवों के व उनके अंगों के व्यापार का सवाल हो,संरक्षण में पारंपरिक ज्ञान और कौशल को प्रौत्साहन देने का सवाल हो, प्रजातियों के अतिशोषण का मामला हो, इन सब के विषय में कानून हैं, नियम हैं, लेकिन जब इनके क्रियान्वयन का सवाल आता है,तब ये सब के सब अकर्मण्यता,बेईमानी, भ्रष्टाचार, लूट- खसोट के शिकार हो जाते हैं।

यहीं वे प्रमुख वजह हैं जिसके कारण न तो उसके व्यापक उपयोग की दिशा में कुछ कारगर प्रयास हो सके हैं और न ही गुणवत्ता बनाये रखने की ओर ध्यान दिया गया है। उस दशा में जबकि जैव विविधता की पारिस्थितिक संतुलन में अहम्भू मिका है, वह सहायक की भूमिका निबाहती है। बाढ़, सूखा आदि आपदाओं से राहत प्रदान करती है। हमारे भोजन, ईंधन, कपड़ा, औषधि आदि की पूर्ति में इसके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि जो जैव विविधता मानव सभ्यत वह संकट में है। यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

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