उपचुनावः SP-BSP के एक साथ होने पर क्या बदल सकता है बीजेपी की वोटों का समीकरण

Edited By Punjab Kesari,Updated: 05 Mar, 2018 01:16 PM

राजनीति में एक प्रसिद्ध कहावत है कि यहां न काेई स्थाई दाेस्त हाेता है आैर न ही स्थाई दुश्मन। लगातार चलती रहती है, जिस आेर हित हाेगा उस आेर झुकाव। इसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के गाेरखपुर आैर फूलपुर उपचुनाव में देखने काे मिल रहा है। राजनीतिक रूप से...

लखनऊः राजनीति में एक प्रसिद्ध कहावत है कि यहां न काेई स्थाई दाेस्त हाेता है आैर न ही स्थाई दुश्मन। लगातार चलती रहती है, जिस आेर हित हाेगा उस आेर झुकाव। इसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के गाेरखपुर आैर फूलपुर उपचुनाव में देखने काे मिल रहा है। राजनीतिक रूप से धुर-विराेधी सपा-बसपा ने 23 साल पुरानी दुश्मनी खत्म कर एक साथ होकर भाजपा को हराने की ठान ली है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इन दोनों राजनीतिक पार्टीयों के एक साथ होने पर भाजपा को कोई खासा फर्क पड़ेगा या नहीं। 

बता दें कि 2014 के आम चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने सूबे में 73 सीटें जीतकर एक तरह से क्लीन स्वीप कर दिया था। सपा को सिर्फ 5 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थीं। बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका था। 2014 के आम चुनाव में यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य फूलपुर से मैदान में थे। तब बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा संभाल रहे मौर्य को इस चुनाव में 5,03,564 वोट मिल थे। वहीं, सपा और बसपा के कैंडिडेट को मिलाकर 358970 वोट मिले थे। साफ है कि दोनों को मिलाकर भी अंतर 144594 वोटों का था। वोट प्रतिशत के लिहाज से भी दोनों दल मिलकर भी भाजपा से पीछे थे। भाजपा को यहां 52 फीसदी वोट मिले थे, जबकि सपा और बसपा के वोट प्रतिशत को मिला दें तो यह आंकड़ा 47 प्रतिशत का ही था। हालांकि अब यूपी में भाजपा एक साल से सत्ता में है। ऐसे में ऐंटी-इन्कम्बैंसी भी इस सीट पर एक फैक्टर हो सकता है।

गोरखपुर को माना जाता है बीजेपी का गढ़
उल्लेखनीय है कि 5 बार लगातार सांसद रहे योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद खाली हुई इस सीट को बीजेपी से छीनना अब भी विपक्षियों के लिए टेढ़ी खीर है। इस सीट को परंपरागत रूप से बीजेपी का गढ़ माना जाता रहा है। 2014 के आम चुनाव में योगी आदित्यनाथ ने यहां 5,39,127 वोट हासिल किए थे। सपा प्रत्याशी राजमति निषाद को उन्होंने 312783 के बड़े अंतर से मात दी थी। बसपा प्रत्याशी को यहां 1,76,412 वोट मिले थे। इस तरह दोनों के वोटों को मिला दिया जाए, तब भी भाजपा प्रत्याशी को चुनौती मुश्किल होती। हालांकि राजनीति में 2 और 2 का जोड़ हमेशा 4 ही नहीं होता। कभी-कभार यह 22 भी हो सकता है। 

गौरतलब है कि इससे पहले 1993 में सपा-बसपा एक साथ चुनाव लड़ चुके हैं। तब लक्ष्य 'राम लहर' को रोकना था। तब सपा-बसपा गठबंधन को 176 सीटें मिली थीं और भाजपा को 177 सीटें। 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद गठबंधन टूटा तो दोनों दल कभी साथ नहीं आ पाए। 23 साल बाद अब सपा-बसपा मोदी लहर को रोकने के लिए एक साथ आए हैं। खैर अब देखना दिलचस्प होगा कि दोनों का साथ राजनीति में क्या रंग लाएगी। 


 

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