Edited By Deepika Rajput,Updated: 13 Apr, 2019 01:30 PM
वाराणसी के 'महाश्मशान' मणिकर्णिका घाट पर शुक्रवार को नगरवधुओं ने सैकड़ों वर्षों पुरानी परंपरा को निभाते हुए जलती चिताओं के बीच नृत्य किया। एक तरफ मातम तो दूसरी तरफ खुशी, एक तरफ मोह से मुक्ती तो दूसरी तरफ भौतिकता।
वाराणसीः वाराणसी के 'महाश्मशान' मणिकर्णिका घाट पर शुक्रवार को नगरवधुओं ने सैकड़ों वर्षों पुरानी परंपरा को निभाते हुए जलती चिताओं के बीच नृत्य किया। एक तरफ मातम तो दूसरी तरफ खुशी, एक तरफ मोह से मुक्ती तो दूसरी तरफ भौतिकता। इसी के साथ नगरवधुओं ने नृत्य कर काशी विश्वनाथ के स्वरूप बाबा मसान नाथ के दरबार में हाजिरी लगाकर अपनी परंपरा को जीवित किया। इस परंपरा को हर वर्ष चैत्र नवरात्रि की सप्तमी तिथि को निभाया जाता है।
आखिर क्या है इस परंपरा के पीछे की सैकड़ों वर्ष पुरानी कहानीः-
दरअसल, 400 साल पहले 17वीं शताब्दी में राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर भूत, भावन भगवान शिव जो मसान नाथ के नाम से श्मशान के स्वामी हैं, उनके मंदिर का निर्माण कराया था। राजा मानसिंह मंदिर के निर्माण के साथ ही यहां संगीत का एक कार्यक्रम आयोजित कराना चाहते थे, लेकिन ऐसे स्थान पर जहां चिताएं जलती हों भला संगीत के सुरों की तान छेड़े भी तो कौन? जाहिर है कोई कलाकार यहां नहीं आया। आई तो सिर्फ तवायफें।
जानिए क्या है मणिकर्णिका घाट के बारे में मान्यता
मणिकर्णिका घाट के बारे में मान्यता है कि यहां अंतिम संस्कार होने वाली देह की जीवात्मा को मां अन्नपूर्णा के कहने पर बाबा विश्वनाथ तारक मंत्र प्रदान करते हैं, जिससे उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इससे वह जन्म-मरण के अनंत बंधन से मुक्त हो जाता है। वहीं इस भूमि पर श्मशान नाथ अथवा मसाननाथ के रूप में विराजमान भगवान शिव के सम्मान में काशी की बदनाम गलियों से आईं युवतियां और महिलाएं अपने नृत्य की प्रस्तुति देती हैं।
मंदिर व्यवस्थापक विजय पांडेय ने बताया कि सत्रहवी शताब्दी से यह परंपरा आज भी निरंतर चली आ रही है। बगैर किसी बुलावे या लालच के खुद-ब-खुद यहां नगरवधुएं अपनी हाजिरी लगाने चली आती हैं। उनकी दिली इच्छा रहती है कि उनको इस बदनाम काम से मुक्ति मिले और अगले जन्म में ऐसी जिंदगी दोबारा न मिले।