क्या राष्ट्रीय स्तर पर गूंजेगा मोदी विरोधी महागठबंधन का मंत्र?

Edited By ,Updated: 15 Apr, 2017 08:42 PM

will the mantra of anti modi alliance be looted at the national level

देश की राजनीति काफी अरसे से गठबंधन के दम पर चल रही थी.देश के एकेडमिक गलियारों में इस बात पर चर्चा होने लगी थी कि अभी सालों तक गठबंधन सरकार का दौर रहेगा।

जालंधर(विकास कुमार): देश की राजनीति काफी अरसे से गठबंधन के दम पर चल रही थी.देश के एकेडमिक गलियारों में इस बात पर चर्चा होने लगी थी कि अभी सालों तक गठबंधन सरकार का दौर रहेगा। देखा जाए तो यूपीए 1 और 2 दोनों ही गठबंधन की सरकारें थी। यकायक मोदी गुजरात से निकले और 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले दम पर बहुमत की सरकार बना दी। देखा जाए तो पूरे विपक्ष में एक सन्नाटा छा गया था और क्षेत्रीय क्षत्रपों की ताकत घट गई थी।

2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब रही। लेकिन जिस तरह से यूपी के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की आंधी के सामने ना तो मायावती टिक पाईं और ना ही राहुल-अखिलेश की जोड़ी। इसके बाद से विपक्ष के नेताओं ने उस फार्मूले की तलाश करनी शुरु कर दी, जिससे कि मोदी को मात दी जा सके।

विपक्ष मोदी लहर की काट के लिए समुद्र मंथन कर रही है। उनके सामने जो रास्ते हैं या यूं कह लें जो फार्मूले हैं उसके दो-तीन आधार हैं.पहला जिसे बिहार में लालू-नीतीश और कांग्रेस ने मिलकर आजमाया और मोदी लहर की धार को कुंद कर दिया। यानी बीजेपी विरोधी दलों का एक महागठबंधन बनाना और बीजेपी विरोधों वोटों के बिखराव को रोकना। वहीं दूसरा आधार कांग्रेस के खिलाफ इन्दिरा गांधी के जमाने में आजमाया गया था और सियासत का अजीब संयोग है कि जिस गठबंधन के हथियार को कांग्रेस के खिलाफ आजमाया गया था। आज उसी सियासी हथियार की जरुरत कांग्रेस को है।

 देखा जाए तो इन्दिरा गांधी की निरंकुश इमरजेंसी के खिलाफ जेपी आंदोलन चला और इसके नतीजे में एक महागठबंधन बना था, जिसमें वैचारिक रूप से विरोधी विचारधारा एक साथ आ गए थे। यानी जनसंघ से लेकर वाम मोर्चा तक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस और इन्दिरा गांधी के खिलाफ लड़े थे। 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी और इन्दिरा गांधी को अपने सियासी जीवन की सबसे बड़ी हार देखनी पड़ी थी। 1977 के इसी प्रयोग के आधार पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1989 में राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ गठबंधन बनाने का कामचलाउ प्रयोग किया, जिसमें बीजेपी और वाम मोर्चे को सहयोगी के रूप में शामिल किया गया था। देखा जाए तो कांग्रेस को हराने में विश्वनाथ प्रताप सिंह का ये महागठबंधन भी सफल ही रहा था। हालांकि आगे चलकर 1996 में दिल्ली में देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी थी लेकिन ये अल्पमत की सरकारें थीं।

भारतीय सियासत की खासियत
भारत में आजादी के बाद से खासकर नेहरु युग के बाद की सियासी इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो हम पाते हैं कि जब भी केंद्र और राज्य में किसी एक पार्टी का वर्चस्व बढ़ा है या किसी एक नेता की ताकत बढ़ी है। तो उसके खिलाफ पूरा विपक्ष सभी विचारधाराओं का ताक पर रख कर मजबूती से लामबंद हुआ है। एक बार इन्दिरा गांधी का भी विरोध हुआ था और अब नरेंद्र मोदी भी जिसतरह से वन मैन आर्मी के तौर पर उभरे हैं.ऐसे में उनके खिलाफ 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसी लामबंदी हो सकती है, जिसमें उन्हें मात देने के लिए बीजेपी विरोधी तमाम छोटे और बड़े दल एक मंच पर आ जाएं।

क्या है वर्तमान में सियासी हालात?
बिहार में लालू,नीतीश और कांग्रेस पहले से ही महागठबंधन का हिस्सा हैं। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है। बचा सवाल मायावती का तो इस बार के विधानसभा चुनाव में हार ने उन्हें अपनी रणनीति पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। यही वजह है कि बाबा साहेब अंबेडकर की 126 वीं जयंती के मौके पर उन्होंने बीजेपी के खिलाफ दूसरे दलों के साथ सहयोग की नीति पर चलने का संकेत दे दिया है। इसके बाद अखिलेश ने भी बीजेपी के खिलाफ किसी भी गठबंधन या दल के साथ जाने का संकेत दे दिया है। साफ है कि उत्तर भारत के सियासी दलों में सुगबुगाहट नजर आ रही है और हो सकता है कि 2019 से पहले एक बड़ा महागठबंधन आकार ले। वहीं अगर देखें तो ममता बनर्जी,नवीन पटनायक और वाम मोर्चा बीजेपी विरोधी किसी भी राष्ट्रीय महागठबंधन से हाथ मिलाने के लिए तैयार ही बैठे हैं। साफ है कि 2019 के चुनावी महासमर के करीब आते-आते मोदी विरोधी दल एक मंच पर आ सकते हैं और बीजेपी की जीत के रास्ते में कांटा बिछा सकते हैं।

बीजेपी और मोदी के सामने क्या है चुनौती?
बीजेपी के सामने चुनौती है कि वे किसी भी सूरत में विपक्ष को एक मंच पर आने से रोकें। बिहार में बीजेपी नीतीश को अपने पाले में लाने के लिए ताकत झोंक सकती हैं तो उत्तर प्रदेश में भी उसे एक खास रणनीति के तहत काम करना होगा,ताकि मायावती को सपा-कांग्रेस के खेमे में जाने से रोका जा सके। जहां तक ममता बनर्जी की बात है उनके लिए बीजेपी बंगाल में कड़ी चुनौती पेश कर रही है। हाल ही में पश्चिम बंगाल के कांठी दक्षिण विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहा और बीजेपी के उम्मीदवार को वाम मोर्चे की तुलना में तीस हजार वोट ज्यादा मिले। साफ है कि ममता बनर्जी को बीजेपी से भविष्य में कड़ी चुनौती मिलेगी और यही वजह है कि ममता का तेवर मोदी के खिलाफ बेहद सख्त नजर आता है। यानी मोदी और अमित शाह के सामने चुनौती है कि बीजेपी विरोधी पार्टियों को एक मंच ना बन पाए.वक्त ही बताएगा कि मोदी और शाह की जोड़ी में ये राजनीतिक कौशल है या नहीं।
 
विपक्षी दलों के सामने क्या है चुनौती?
राज्यों में महागठबंधन बनाना आसान है लेकिन बात जब दिल्ली की सिंहासन की हो तो प्रधानमंत्री के पद के चेहरे को लेकर पार्टियां आपस में सहमत नहीं होतीं। कांग्रेस के पास राहुल गांधी का चेहरा है तो बिहार में नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखते हैं और मुलायम सिंह यादव के दिल में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब अभी भी जिंदा है। प्रधानमंत्री के चेहरे पर एक राय बनाना पूरे विपक्ष के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। सियासत में संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती। मायावती और अखिलेश भी संभावनाएं तलाश रहे हैं और कांग्रेस उम्मीद में बैठी है कि कोई महागठबंधन बन जाए जो राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी से लोहा ले। हो सकता है कि आने वाले वक्त में कुछ नए सियासी समीकरण बने। और तब वाकई में बीजेपी और पीएम मोदी की सियासी परिपक्वता की असली अग्नि-परीक्षा होगी।
 

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