उत्तराखंड: प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बेहद संवेदनशील भूमि, मॉनसून के दौरान जान-माल का भारी नुकसान

Edited By Nitika,Updated: 03 Jul, 2022 02:21 PM

land very vulnerable to natural calamities

जून 2013 में केदारनाथ में आई जल प्रलय के दर्दनाक मंजर को लोग भूल भी न पाए थे कि पिछले साल ऋषिगंगा में आई बाढ़ ने एक बार फिर उत्तराखंड को हिलाकर रख दिया। इस त्रासदी ने राज्य के प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होने की याद दिलाई।

 

देहरादूनः जून 2013 में केदारनाथ में आई जल प्रलय के दर्दनाक मंजर को लोग भूल भी न पाए थे कि पिछले साल ऋषिगंगा में आई बाढ़ ने एक बार फिर उत्तराखंड को हिलाकर रख दिया। इस त्रासदी ने राज्य के प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होने की याद दिलाई। हर साल खासतौर पर मानसून के दौरान उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जान-माल का भारी नुकसान झेलना पड़ता है।

वर्ष 2013 में केवल केदारनाथ आपदा में ही करीब 5 हजार लोगों की मौत हुई थी, जबकि 2021 में चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ से रैंणी और तपोवन क्षेत्र में भारी तबाही मची थी और 200 से ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि हिमालय के पर्वत नए होने के कारण बेहद नाजुक हैं, इसलिए ये बाढ़, भूस्खलन और भूकंप के प्रति काफी संवेदनशील हैं, खासतौर पर मानसून के दौरान, जब भारी बारिश के चलते इन प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बढ़ जाती है। देहरादून स्थित हिमालय भूविज्ञान संस्थान में भूभौतिकी समूह के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुशील कुमार कहते हैं, अपेक्षाकृत नए पर्वत होने के कारण हिमालय की 30 से 50 फीट की ऊपरी सतह पर केवल मिट्टी है, जो थोड़ी से छेड़छाड़ होते ही, खासतौर पर बारिश के मौसम में, अपनी जगह छोड़ देती है और भूस्खलन का कारण बनती है।

डॉ. कुमार के मुताबिक, ‘ऑलवेदर सड़क परियोजना' के लिए पहाड़ों की कटाई, चारधाम यात्रा के लिए श्रद्धालुओं की भारी आवक और टिहरी बांध जैसे बड़े बांधों से नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वृद्धि के कारण ज्यादा बारिश ने भी प्राकृतिक आपदाओं में इजाफा किया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में ‘अर्ली वार्निंग प्रणाली' (आपदा की चेतावनी देने वाली प्रणाली) लगाकर आपदाओं से होने वाली जनहानि को कम किया जा सकता है, लेकिन इसके कारगर सिद्ध होने के लिए सरकार को इंटरनेट नेटवर्क में भी सुधार करना होगा। डॉ. कुमार ने सरकार से भूकंप के प्रति संवेदनशील इलाकों में रह रही आबादी के लिए भूकंप-रोधी आश्रय गृह बनाने और लोगों को भी ऐसी भवन निर्माण तकनीक अपनाने के लिए प्रेरित करने की अपील की। उत्तराखंड आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र से मिले आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2020 के बीच राज्य में आई प्राकृतिक आपदाओं में करीब 600 लोगों की जान गई, जबकि 500 से अधिक घायल हुए। वहीं, सैकड़ों घरों, इमारतों, सड़कों और पुल के क्षतिग्रस्त होने के कारण भी बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए।

आंकड़ों के मुताबिक, इन आपदाओं में 2050 हेक्टेअर से ज्यादा कृषि भूमि भी बर्बाद हुई। इस साल भी मानसून की पहली ही बारिश में भूस्खलन और चट्टानों के खिसकने की घटनाओं में केदारनाथ सहित अन्य जगहों पर 5-6 पर्यटकों को जान गंवानी पड़ी। मानसून को देखते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने खुद इस संबंध में अधिकारियों के साथ बैठक की और आपदा प्रबंधन सहित अन्य विभागों को बहुत सतर्क रहने तथा बेहतर तालमेल के साथ काम करने के निर्देश दिए। धामी ने कहा किसी भी आपदा की सूरत में प्रतिक्रिया समय कम से कम होना चाहिए और राहत एवं बचाव कार्य तत्काल शुरू किए जाने चाहिए। मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया कि बारिश या भूस्खलन के कारण सड़क संपर्क टूटने या बिजली, पानी की आपूर्ति बाधित होने की स्थिति में इन सुविधाओं को जल्द से जल्द बहाल करने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। धामी ने आपदा के प्रति संवेदनशील जगहों पर राज्य आपदा प्रतिवादन बल की टीमें तैनात करने, जेसीबी तैयार रखने, सैटेलाइट फोन चालू अवस्था में रखने और खाद्य सामग्री, दवाओं व अन्य आवश्यक वस्तुओं की पूर्ण व्यवस्था पहले से ही करने का निर्देश दिया। अगले 3 महीनों को आपदा के लिहाज से संवेदनशील बताते हुए धामी ने इनसे पनपने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए जिलाधिकारियों से ज्यादातर फैसले अपने स्तर पर लेने और आपदा प्रबंधन के वास्ते दी जा रही धनराशि का आपदा मानकों के हिसाब से अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने को कहा।

मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि आपदा से प्रभावित लोगों को आपदा मानकों के हिसाब से जल्द से जल्द मुआवजा दिया जाना चाहिए और अगले 3 महीनों में अधिकारियों की छुट्टी विशेष परिस्थिति में ही स्वीकृत की जानी चाहिए। धामी ने जिलाधिकारियों को निर्देश दिए कि जिन जगहों पर पानी की निकासी की समस्या हो, वहां की योजनाएं तुरंत भेजी जाए।

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