जन्मदिन विशेषः दलितों के बीच ईश्वर के रूप में पूजे जाते हैं बाबा साहेब अंबेडकर

Edited By Ajay kumar,Updated: 13 Apr, 2018 04:40 PM

baba saheb ambedkar is worshiped among the dalits as god

अंग्रेजों के शासनकाल में भारत माता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी, तब उस घड़ी में भी दकियानूसी एवं गलत विचारधारा के लोग मातृभूमि को विदेशियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करने के बजाय मानव-मानव में जाति के आधार पर विभेद करने से...

यूपी डेस्क (अजय कुमार): अंग्रेजों के शासनकाल में भारत माता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी, तब उस घड़ी में भी दकियानूसी एवं गलत विचारधारा के लोग मातृभूमि को विदेशियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करने के बजाय मानव-मानव में जाति के आधार पर विभेद करने से नहीं हिचकते थे। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में कट्टरपंथियों का विरोध कर दलितों का उद्धार करने एवं भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सही दिशा देने के लिए जिस महामानव का जन्म हुआ, उन्हें ही दुनिया डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम से जानती है। वे अपने कर्मों के कारण आज भी दलितों के बीच ईश्वर के रूप में पूजे जाते हैं। आइए जानते हैं उनके जीवन संघर्ष के बारे में-

जीवन परिचय-
डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को केंद्रीय प्रांत (अब मध्य प्रदेश) के ‘म्हो’ में हुआ था। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में सूबेदार मेजर थे तथा उस समय महो छावनी में तैनात थे। उनकी माता का नाम भीमाबाई मुरबादकर था। भीमराव का परिवार हिंदू धर्म के महार जाति से संबंधित था, उस समय कुछ कट्टरपंथी सवर्ण इस जाति के लोगों को स्पृश्य समझकर उनके साथ भेदभाव एवं बुरा व्यवहार करते थे। यही कारण है कि भीमराव को बचपन से ही सवर्णों के बुरे व्यवहार एवं भेदभाव का शिकार होना पड़ा।

छुआछूत इतनी चरम सीमा पर था कि भीमराव को स्कूल में अन्य बच्चों से अलग एवं कक्षा के बाहर बैठाया जाता था। अध्यापक ध्यान नहीं देते थे और प्यास लगने पर उन्हें चपरासी भी पानी नहीं पिलाता था और जब पिलाता था तो इतनी दूर से कि पानी पीते वक्त भीमराव के कपड़े भीग जाते थे। चपरासी की जिस दिन छुट्टी होती थी उस दिन भीमराव को प्यासा ही रहना पड़ता था। लोगों के इस छुआछूत और भेदभाव के व्यवहार का उनपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने दलितों को छुआछूत और उनके अधिकार के लिए इसे जड़ से खत्म करने की प्रतिज्ञा ठान ली। और जीवन भर दलितों के लिए और देश के लिए लड़ते रहे। 

शैक्षणिक योग्यता-
महाराष्ट्र में भीमराव ने सन् 1907 ई. में हाईस्कूल में अच्छे अंकों के साथ परीक्षा पास कर ली, तो बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ ने प्रसन्न होकर उन्हें 25 रुपए मासिक छात्रवृत्ति देना प्रारम्भ किया और आगे की पढ़ाई के लिए राजा ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजा। इसके बाद भीमराव अमेरिका चले गए जहां न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में उन्होंने एम.ए.और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह इंग्लैड़ चले गए जहां लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डाक्टर ऑफ साइंस की उपाधि प्राप्त की। कानून की डिग्री पढ़ाई करने के बाद उन्होंने बंबई उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ किया। 

यहां भी उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा उन्हें बैठने के लिए कुर्सी नहीं दी जाती थी और उनके पास कोई मुवक्किल उनके पास नहीं आता था। संयोगवश उन्हें हत्या का मुकदमा मिला, जिसे किसी भी वैरिस्टर ने स्वीार नहीं किया था। उन्होंने इतनी कुशलता से इसकी पैरवी की कि जज ने उनके मुवक्किल के पक्ष में निर्णय दिया। इस घटना ने अंबेड़कर को खूब ख्याति दिलाई। 

भेदभाव के खिलाफ संघर्ष की शुरूआत-
अंबेडकर ने बचपन से ही अपने प्रति समाज के भेदभाव को सहा था। इसलिए उन्होंने इसके लिए संघर्ष की शुरूआत की। इस उद्देश्य हेतु उन्होंने सबसे पहले ‘वहिष्कृत भारत’ नामक मराठी मासिक पत्रिका निकालना प्रारम्भ किया। इस पत्र ने दलित शोषितों को जगाने का अभूतपूर्व कार्य किया। उस समय दलितों से छुआछूत की वजह से मंदिरों में प्रवेश वर्जित था। उन्होंने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मांग की और 30 हजार दलितों को साथ लेकर नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया। इस दौरान उच्च वर्णों के लोगों की मार से भीमराव समेत कई लोग घायल हो गए, किन्तु पीछे नहीं हटे और मंदिर में प्रवेश कराकर ही दम लिया। इस घटना के बाद से ही लोग उन्हें ‘बाबा साहब’ कहने लगे।

राजनीतिक शुरूआत-
सन 1937 के बंबई चुनावों में इनकी पार्टी को 15 में से 13 स्थानों पर जीत हासिल हुई। हालांकि अंबेडकर-महात्मा गांधी के दलितोद्धार के तरीकों से बिल्कुल सहमत नहीं थे, लेकिन अपनी विचारधारा के कारण उसने कांग्रेस के नेहरू और पटेल जैसे बड़े नेताओं काे अपनी ओर आकर्षित किया। जब 15 अगस्त 1947 को भारत स्वातंत्र हुआ तो उन्हे स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री बनाया  गया। इसके बाद उन्हें भारत की संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्होंने भारतीय संविधान को 2 साल 11 महीने 18 दिन में तैयार किया, इसलिए उन्हें ‘संविधान निर्माता’ कहा गया। 

प्रसिद्ध पुस्तकें-
अपने जीवनकाल में अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतू उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की। जिनमें से-‘अनटचेबल हू आर दे’, स्टेटस एण्ड माइनॉरिटीज, हू वर दी शूद्राज, बुद्धा एण्ड हिज धम्मा, पाकिस्तान एण्ड पार्टिशन अॅाफ इंडिया, थॉट्स ऑफ लिंग्यूस्टिक स्टेटस, द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी, द राइज एण्ड फॉल ऑफ हिन्दू वूमेन, इमैनसिपेशन ऑफ द अनटचेबलस आदि। 

हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं थे अंबेडकर 
अंबेडकर पर भले हिंदू धर्म के खिलाफ हाेने का आराेप लगाया जाता हाे लेकिन वास्तव में वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। वे हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं थे तथा इस धर्म की बुराईयां और इसमें निहित भेदभाव को दूर करना चाहते थे। उन्हें जब लगने लगा कि कट्टरपंथी एवं दकियानूसी विचारधारा के लोगों के रहते हुए पिछड़े एवं दलितों का भला नहीं हो सकता, तो उन्होंने धर्म-परिवर्तन का निर्णय लिया। 14 अक्टूबर 1956 को दशहरे के दिन नागपुर में एक विशाल समारोह में लगभग 2 लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। 

1990 में मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया
डॉ भीमराव अंबेडकर एक महान विधिवेत्ता, समाज सुधारक, शिक्षाविद् एवं राजनेता थे। 6 दिसंबर 1956 को यानि आज के दिन भारत के इस महान सपूत और ‘दलितों के मसीहा’ का निधन हो गया। उनकी उपलब्धियों एवं मानवता के लिए उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 1990 में मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। अंबेडकर आज सशरीर हमारे बीच भले न हों किन्तु यदि आज दलितों को बहुत हद तक उनका सम्मान मिला है तथा समाज में छुआछूत की भावना कम हुई है तो इसका अधिकांश श्रेय बाबासाहब को जाता है। अंबेडकर की विचारधारा पूरी मानवता का कल्याण करती रहेगी, उनका जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है। 

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