Edited By Punjab Kesari,Updated: 06 Nov, 2017 05:54 PM
उत्तर प्रदेश में घोषित निकाय चुनाव का रण सभी राजनीतिक पार्टियो के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के कारण यह चुनाव बीजेपी के लिए और भी खास है। कारण यह भी है कि पिछले चुनाव में भाजपा ने अन्य दलों पर अपना वर्चस्व...
उत्तर प्रदेश (आशीष पाण्डेय): उत्तर प्रदेश में घोषित निकाय चुनाव का रण सभी राजनीतिक पार्टियो के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के कारण यह चुनाव बीजेपी के लिए और भी खास है। कारण यह भी है कि पिछले चुनाव में भाजपा ने अन्य दलों पर अपना वर्चस्व कायम किया था और इस बार उसके सामने योगी-मोदी के जादू को दोहराने की कड़ी चुनौती है। सपा व कांग्रेस मिलकर इस चुनाव को और भी रोचक बना दिया है। साथ ही, अबकी बार बीएसपी भी अपने सिंबल पर चुनाव लड़ रही तो मुकाबला टक्क र का होना लाजिमी है। जिसके कारण सभी पार्टी के आलाकमान जहां टिकट बंटवारे के लिए जुमलेबाजी कर रहे हैं वही उम्मीदवार भी जुगाड़ और जज्बात का सहारा लेकर अपनी गोटी सेट करने में लगे हैं।
नए कार्यकर्ताओं को बीजेपी की बहुत बड़ी 'ना'
भाजपा पर कई बार यह आरोप लगा है कि उसे आरएसएस द्वारा कंट्रोल किया जा रहा है। यह बात समय समय पर साबित भी हो रही है। खैर, ताजा उदाहरण यूपी के नगर निकाय चुनाव में भी देखने को मिला है। लखनऊ के मेयर पद के लिए जिस तरह से संयुक्ता भाटिया को टिकट मिला राजनीतिक वि£शेषणों वो काफी चौंकाने वाला नहीं लगा। संयुक्ता के परिवार की पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ी रही है। उनके पति सतीश भाटिया लखनऊ कैंट से बीजेपी विधायक रह चुके हैं। संयुक्ता के बेटे प्रशांत भाटिया राष्ट्रीय स्वयं संघ के विभाग कार्यवाह (लखनऊ विभाग) हैं। चुनाव से पहले 80 फीसदी वॉर्ड संयोजकों और प्रभारियों ने उनके पक्ष में समर्थन दिया था। यही कारण है कि आरएसएस में उनकी अच्छी पकड़ मानी जा रही है। इसके अलावा अलीगढ़ से राजीव अग्रवाल बीजेपी के टिकट पर चुनाव लडेंगें। वे संघ के पुराने कार्यकर्ता रहे हैं। इंटर कॉलेज में टीचर राजीव को संघ के आशीर्वाद से टिकट मिला है। अन्य जिन शहरों में मेयर पद के लिए जिन उम्मीदवारों का टिकट मिला है वो या तो सिटिंग कैंडिडेट हैं या फिर बीजेपी व संघ से उनका पुराना नाता रहा है।
2012 के निकाय चुनाव में बीजेपी को मिली थी संजीवनी
वर्ष 2012 में हुए नगर निकाय चुनाव में 12 में से 10 नगर निगमों मेरठ, गाजियाबाद, मुरादाबाद, अलीगढ़, आगरा, कानपुर नगर, झांसी, लखनऊ, गोरखपुर और वाराणसी में भाजपा के महापौर ही जीते थे। दो अन्य सीटों बरेली तथा इलाहाबाद पर निर्दलीय प्रत्याशी विजयी हुए थे। इस बार मथुरा, फिरोजाबाद, फैजाबाद और सहारनपुर के रूप में चार और नगर निगम क्षेत्र बनाये गये हैं, जो पहली बार निकाय चुनाव के दौर से गुजरेंगे। इसके अलावा नगर पालिका अध्यक्ष के 194 पदों में से 42 पर भाजपा ने और 15 पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया था। सपा का खाता भी नहीं खुला था, जबकि 130 सीटों पर निर्दलीय अथवा अन्य दलों द्वारा समर्थित प्रत्याशी जीते थे। इसके अलावा 423 नगर पंचायतों में से 36 में अध्यक्ष के पद पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, जबकि 21 पर कांग्रेस ने कब्जा किया था। वर्ष 2012 के चुनाव में नगर निगमों में पार्षद के 980 पदों के लिये हुए चुनाव में भाजपा ने 304 सीटें जबकि कांग्रेस ने 100 सीटें जीती थी। इसी तरह नगर पालिका परिषद सभासद के कुल 5077 पदों के लिये हुए चुनाव में भाजपा ने 506 जबकि कांग्रेस ने 179 सीटों पर कब्जा जमाया था। साथ ही 4323 सीटें निर्दलीय अथवा समर्थित प्रत्याशियों ने जीती थी।
इतिहास दोहराया गया तो बढ़ेगी बीजेपी की मुश्किल
भाजपा जब निकाय चुनाव में अपने झंडे गाड़ रही थी उसके ठीक करीब 5 महीने पहले ही सूबे में सपा की सरकार काबिज हुई थी। 2012 में विधानसभा चुनाव में बनी सपा की सरकार को ठीक 4-5 महीने बाद ही निगम चुनाव में जनता के सामने जाना पड़ा था। कमोबेश यही स्थिति वर्तमान में भाजपा की भी है। सत्ता में काबिज सपा सरकार को नगर निकाय चुनाव में सरकार ने सीरे से खारिज कर दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी एक नई ताकत के साथ इस चुनाव में उभर कर सामने आयी। यह स्थिति इसलिए हुई क्योंकि सपा शासन में 6 महीने के शासन काल के दौरान क्राइम, भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क आदि में कोई सुधार नहीं दिखा। बल्कि हालत और भी खराब हो गई। इस बार भी क्राइम, स्वास्थ्य और सुरक्षा का मुद्दा प्रदेश में प्रमुखता से उठ रहा है। विपक्ष इनपर लगातार निशाना बना रहा है। देखना होगा जनता इतिहास दोहराती है या बनाती है। इतना तो यह है कि निकाय चुनाव के परिणाम गुजरात विधानसभा पर प्रभाव अवश्य डालेंगे।