यूपी चुनाव: पहले दो चरणों में होगी मोदी-माया की असली परीक्षा

Edited By ,Updated: 31 Jan, 2017 09:21 PM

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले दो दौरों में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की कड़ी परीक्षा होगी। यहां की 140 सीटें बहुत हद तक यह तय करेंगी कि अंतत: बसपा के लिए 2017 का चुनाव कैसा साबित होता....

लखनऊ(ज्ञानेंद्र शर्मा): उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले दो दौरों में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की कड़ी परीक्षा होगी। यहां की 140 सीटें बहुत हद तक यह तय करेंगी कि अंतत: बसपा के लिए 2017 का चुनाव कैसा साबित होता है और कि मुजफ्फनगर दंगे के बाद 2014 में हुए चुनाव में मिली सफलता के आइने में अब इस चुनाव में भाजपा की क्या तस्वीर उभरकर सामने आ पाती है। 

पहले दो चरणों में बसपा को अपनी 42 सीटें बचानी होंगी तो भाजपा को 2014 की भारी सफलता को। चूंकि इन चरणों में ज्यादातर चुनाव क्षेत्रों में अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है, इसलिए यह भी तय होगा कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठजोड़ क्या गुल खिलाता है। आम तौर पर यह माना जा रहा है कि दो दलों का यह गठबंधन, जिसके चलते प्रदेश की राजनीति 1993 के बाद चतुष्कोणीय से त्रिकोणीय हुई है, बसपा के लिए कड़ी चुनौती पेश करेगा।

ये वे दो चरण हैं जिनमें 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिले थे। प्रदेश के और किसी इलाके में भाजपा को इतने अधिक वोट प्राप्त नहीं हुए थे। मुजफ्फरनगर  में फैली साम्प्रदायिक हिंसा के परिणामस्वरूप मतदाताओं का जो ध्रुवीकरण हुआ था, उसका भाजपा को बहुत बड़ा लाभ मिला था। दरअसल इसका असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ ही दूसरे हिस्सों में भी हुआ था लेकिन पश्चिम की सफलता ने भाजपा को लोकसभा चुनाव में 80 में से 71 सीटें दिलाने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उसके चार मुख्य प्रतिद्वंद्वियों समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को अपेक्षाकृत बहुत कम सीटें ही मिली थीं।

भाजपा ने 2014 के लोस चुनाव में 328 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी जबकि सपा को 42, कांग्रेस को 15 तथा बसपा और अपना दल को नौ नौ सीटों पर जीत हासिल हो सकी थी। जहां तक 2012 विधानसभा चुनाव का सवाल है, भाजपा तीसरे नम्बर पर रही थी। लेकिन 2013 के दंगों ने सारा परिदृश्य बदल दिया था। जिन 15 जिलों में अब अगले महीने प्रथम चरण में चुनाव होने हैं, उनमें बसपा ने अच्छा प्रदर्शन किया था और सपा की बराबरी कर ली थी। दोनों को 24-24 सीटों पर सफलता मिली थी। लेकिन दूसरे दौर वाले 11 जिलों में सपा के 34 के मुकाबले बसपा के 18 सफलता द्वार खुल सके थे। 

भाजपा इन पहले व दूसरे दौरों वाले जिलों में क्रमश: 11 व 10 सीटें पा सकी थी जबकि कांग्रेस को 5 व 3 पर सफलता मिली थी। रालोद को पहले दौर वाले 15 जिलों में 9 सीटों पर सफलता मिली थी जो पश्चिम में उसके प्रभाव को दर्शाता है। शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, एटा और कासगंज में सपा और बसपा को 33-33 प्रतिशत सीटें मिली थीं। दूसरे दौर वाले जिलों में सपा को 34 सीटें मिल गई थीं, जो आधे से कुछ अधिक थीं। इनमें 9 जिले मुस्लिम-बाहुल्य रुहेलखण्ड के थे, जो सपा के परम्परागत प्रभाव वाले इलाके होते हैं। रुहेलखण्ड में सम्भल और अमरोहा जिलों में उसे सारी सीटों पर जीत मिली थी जबकि पीलीभीत में 4 में 3, बदायूं में 6 में 4, मुरादाबाद में 6 में 4 सीटें उसके मिल गई थीं।

बहुजन समाज पार्टी को गाजियाबाद की 5 में से 4, गौतम बुद्ध नगर, हाथरस और बागपत में से प्रत्येक में 3 में से 2, आगरा में 9 में से 6, सहानपुर में 7 में से 4, बिजनौर में 8 में से 4 सीटेें मिल गई थीं। इसके चलते उसने इन 26 जिलों में 42 सीटें जीत ली थीं। लेकिन इस बार के चुनाव में बसपा को नाकों चने चबाने पड़ेंगे क्योंकि अपनेे सामने सपा-कांग्रेस गठबंधन नाम का एक पहाड़ उसे खड़ा मिलेगा। बहुत सारे प्रेक्षक यह मानते रहे हैं कि इन 26 जिलों में सपा और कांग्रेस का गठजोड़ अल्पसंख्यक मतदाताओं को एक निश्चित विकल्प प्रस्तुत करेगा, ऐसा विकल्प जिसमें भाजपा को शिकस्त देने की क्षमता होगी। इसका दुष्परिणाम बसपा को झेलना पड़ सकता है। 

यह माना जा रहा है कि बसपा यदि इन जिलों में पिछड़ गई तो उसे दूसरे इलाकों में उसकी भरपाई कर पाना बहुत मुश्किल साबित होगा। स्थिति को भांपते हुए बसपा ने पश्चिम और रुहेलखंड के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मुसलमान प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यह कहते रहे हैं कि कांग्रेस से उनकी पार्टी का गठजोड़ हुआ तो उन्हें 300 क्षेत्रों में जीत हासिल होगी। अब यह हो गया है और यदि उनकी पार्टी को बहुमत का आंकड़ा छूना है तो इसी इलाके के 26 जिलों में अपना करतब दिखाना होगा।

पश्चिम और रुहेलखण्ड के इलाके में सपा-कांग्रेस गठबंधन को यदि अल्पसंख्यकों ने भाजपा को हराने की क्षमता वाला मान लिया तो इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि बसपा मुख्य धारा से हटकर किनारे चली जाएगी। जहां तक भारतीय जनता पार्टी का सवाल है उसे शामली, मेरठ और बरेली में सबसे ज्यादा सफलता मिली थी। 2012 में शामली में उसने दोनों सीटों पर सफलता हासिल की थी जबकि मेरठ की 7 में से 4 और बरेली की 9 में से 3 उसके हिस्से में आई थीं। लेकिन उसके दो साल बाद जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो भाजपा को लगभग 80 फीसदी विधानसभाई हिस्सों में बढ़ मिली थी। 

भाजपा यह जरूर चाहेगी कि उसके प्रदर्शन को 2014 की नहीं, 2012 की उपलब्धियों के आधार पर मापा जाना चाहिए। कांग्रेस को कुल 8 सीटें 2012 में मिली थीं और इस बार उसका मुख्य सहारा सपा ही होगी। उसके लोग यह मानकर चल रहे हैं कि सपा के साथ मिल जाने के बाद उसका प्रदर्शन सुधरेगा क्योंकि जिन सीटों पर उसे अपने उम्मीदवार खड़े करने का मौका मिला है, उन पर सपा का वोट भी उसके हिस्से में आन मिलेगा।

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