पुत्र मोह में एक ने टेके घुटने तो दूसरे उठ खड़े हुए

Edited By ,Updated: 19 Jan, 2017 02:44 PM

son kneeling on one knee  then the other stood up in fascination

दोनों तीन-तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। दोनों ने उत्तर प्रदेश की धरती पर कई तरह की राजनीतिक उथल-पुथल देखी है और मोर्चे लिए हैं। एक का राजनीतिक उत्थान दूसरे के प्रदेश में...

लखनऊ(ज्ञानेन्द्र शर्मा): दोनों तीन-तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। दोनों ने उत्तर प्रदेश की धरती पर कई तरह की राजनीतिक उथल-पुथल देखी है और मोर्चे लिए हैं। एक का राजनीतिक उत्थान दूसरे के प्रदेश में राजनीतिक अवसान के साथ हुआ और अब दोनों को अपने-अपने बेटों की खातिर जीवन के सबसे कठिन फैसले लेने पड़े हैं।

मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे से चार महीने तक जंग की और अंतत: अपने बेटे के सामने घुटने टेक दिए जबकि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने मामूली-सी कशमकश के बाद अपने घुटने खड़े कर लिए और अपने बेटे को अपनी उपस्थिति में उस भारतीय जनता पार्टी में शामिल करा दिया जो कांग्रेस की धुर विरोधी रही है। बहुतों को अपने बेटे को भाजपा में भेजने का तिवारी जी का फैसला नहीं पचा खास तौर पर उनको जिन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बाद तिवारी जी का कांग्रेस पार्टी में लंबा दबदबा देखा है।

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1984 में कुछ समय के लिए जब उन्होंने अर्जुन सिंह के साथ मिलकर कांग्रेस (टी) बनाई, वे कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में थे और एक बार तो प्रधानमंत्री होते-होते रह गए। 1991 के चुनाव में वे नैनीताल लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए। 4 पर्वतीय विधानसभा जीतने के बाद भी वे हार गए क्योंकि नैनीताल संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली मैदानी जिला बरेली की बहेड़ी विधानसभा सीट पर वे इतने पिछड़े कि सीट ही खो बैठे। इस हार के साथ वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। उनकी जगह नरसिंह राव आ गए। 

यह नारायण दत्त तिवारी ही थे जिन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी गद्दी मुलायम सिंह यादव को 1989 में उस समय सौंपनी पड़ी थी जब कांग्रेस को जनता दल ने विधानसभा चुनाव में हरा दिया था और मुलायम विधानमंडल दल के नेता पद के चुनाव में अजित सिंह पर जीत दर्ज करके मुख्यमंत्री बन गए थे। तिवारी जी 3 बार उ.प्र. के मुख्यमंत्री रहने के अलावा केन्द्र में कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। तिवारी जी एकमात्र ऐसे नेता हैं जो 2 राज्यों -उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रहे हैं। वे लगभग दो वर्ष तक आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे।

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मुलायम सिंह यादव नेे समाजवादी पार्टी में कई महीने वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जो 4 महीने चरम पर रही। अंतत: उन्होंने अपने बेटे के सामने हार मान ली और चुनाव आयोग द्वारा अखिलेश को पूरी पार्टी  सौंप देने के उसके फैसले के बाद उसे स्वीकार कर लिया। उधर तिवारी जी ने अपने बेटे की खातिर भाजपा से उसकी दोस्ती करा दी। कहा जाता है कि जो डील हुई है, उसके तहत उनके बेटे रोहित शेखर को भाजपा उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव लड़ाएगी। 

यादव और तिवारी जी में दो भारी असमानताएं दिखीं। 78 वर्षीय मुलायम सिंह ने  बेटे के साथ हुए शीतयुद्ध में अखिलेश को एक बार पार्टी से निकाला तो लेकिन जल्दी ही निष्कासन आदेश वापस ले लिया लेकिन उन्होंने अखिलेश के मुकाबले न तो कोई समानांतर पार्टी खड़ी की और न ही पार्टी के अंदर उनके वर्चस्व को चुनौती दी। परन्तु 91 साल के तिवारी जी ने अपने राजनीतिक सितारों को पुनर्जीवित करते हुए अपने बेटे को टिकट दिलाने के लिए भाजपा में भेज दिया। तिवारी जी पिछले कुछ सालों से राजनीति में सक्रिय नहीं रहे हैं हालांकि मुलायम सिंह और अखिलेश ने समय समय पर उन्हें कई मंच हासिल कराए और यहां तक कि कुछ समारोह में मुख्य अतिथि बनाकर उनका सम्मान किया। अखिलेश सरकार ने उनके बेटे रोहित शेखर को कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया, लेकिन इससे रोहित संतुष्ट नहीं थे और उत्तराखण्ड से विधायक बनने की चाहत में वे अपने पिता के सामने भाजपा में चले गए।

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