...तो कई बार मुख्यमंत्री बनतीं मायावती!

Edited By ,Updated: 30 Jan, 2017 09:26 PM

chief minister mayawati evolving so many times

उत्तर प्रदेश में सत्ता की पायदान तक पहुंचने के लिए राजनीतक दल अलग-अलग फॉर्मूले और समीकरणों का सहारा लेते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि इनमें सबसे मारक फॉर्मूला कौन सा है।

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में सत्ता की पायदान तक पहुंचने के लिए राजनीतक दल अलग-अलग फॉर्मूले और समीकरणों का सहारा लेते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि इनमें सबसे मारक फॉर्मूला कौन सा है। सोचिए...थोड़ा दिमाग पर और जोर डालिए। चलिए परेशान मत होइए, हम ही इसका खुलासा किए देते हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश में सत्ता हथियाने का सबसे मारक ‘मंत्र’ हैं दलित मुस्लिम गठजोड़। लेकिन दलितों की नेता मायवाती इस गठजोड़ को भुनाने में पूरी तरह नाकाम साबित हुईं। और बात पूरी तरह से समझ में आती है और यह तस्वीर साफ दिखाई पड़ती है।

दलित-मुस्लिम जनसंख्या का 40 फीसदी से भी ज्यादा
बता दें कि इन दोनों समुदाय को मिलाने पर उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का 40 से भी ज्यादा फीसदी बैठता है। एक ऐसे राज्य में जहां समाजवादी पार्टी पिछले चुनाव में 30 से कम फीसदी वोट हासिल करने पर सरकार बना सकती है, तो आप सोचिए कि दलित-मुस्लिम गठजोड़ को फतह करके कितनी आसानी से सत्ता तक पहुंचा जा सकता है। अब यह तो आप जानते ही हैं कि बसपा सुप्रीमो को प्रदेश में सबसे ज्यादा दलितों का समर्थन हासिल है और अगर मुस्लिम मतदाता पूरी तरह मायावती के पक्ष में उतर आते हैं, तो यह ‘गठजोड़’ अपराजेय साबित हो सकता है। इस गणित को समझने के लिए कोई ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है और मायावती इस बात को बखूबी समझती हैं। बावजूद इसके यह रहस्य ही बना हुआ है कि यह सब जानने और समझने के बावजूद मायावती मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए आक्रामक रणनीति क्यों नहीं अपनातीं। 

बीजेपी को हराने वाली पार्टी के खिलाफ खड़े होते हैं मुस्लिम!
उत्तर प्रदेश में आम तौर पर यह अवधारणा है कि मुस्लिम उस पार्टी के साथ खड़े होते हैं, जिसकी बीजेपी को हराने की सबसे ज्यादा संभावना होती है, और अगर इस बात को सच माना जाए तो मुस्लिम बसपा को वोट देने के लिए उत्साहित क्यों नहीं दिखाई पड़ते। सपा को मुसलमानों का बड़ा वोट फीसदी मिलता है, लेकिन इस बाबत बसपा काफी पीछे छूट जाती है। इसके लिए कई कारण दिए जाते हैं, लेकिन इसका हालिया उदाहरण हम आपको बता देते हैं। इसके तहत बीएसपी के पास मुस्लिम वोट झटकने का सुनहरा मौका था, लेकिन मायावती ने यह मौका गंवा दिया।

दंगों को भुनाने में नाकाम साबित हुईं
मुजफ्फरनगर दंगों और दादरी में अखलाख कांड के बाद मुसलमानों का मूड सपा के खिलाफ हो चला था। अब कम से कम यह तो बात गले नहीं ही उतरती मायावती को अल्पसंख्यकों के इस गुस्से के बारे में पता ही नहीं होगा। लेकिन इसके बावजूद मायावती सपा के खिलाफ मुस्लिमों में फैले रोष को भुनाने में नाकाम साबित हुईं। 

मायावती उनके समुदाय की ज्यादा परवाह नहीं
चलिए और आगे बढ़ते हैं। दरअसल मुसलमानों में यह भावना प्रबल है कि मायावती उनके समुदाय की ज्यादा परवाह नहीं करतीं। मुस्लिम समुदाय में यह भावना तब पनपी, जब मायावती के शासनकाल में आजमगढ़ और उत्तर प्रदेश के बाकी शहरों से युवा मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया है। साथ ही, आजमगढ़ को ‘आतंक के शहर’ के रूप में प्रचारित किया गया। मुस्लिमों ने उम्मीद की थी इसके खिलाफ मायावती कड़ा रुख अख्तियार करेंगी और कम से कम इन गिरफ्तारियों के खिलाफ कुछ बोलेंगी। यह वह बात थी, जिससे मुस्लिमों की हौसला आफजाई हो सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में मुसलमानों ने महसूस किया कि मायावती ने उनका दर्द नहीं समझा और इससे मुसलमानों और बसपा के बीच खाई लगातार बढ़ती चली गई। अब जबकि बसपा के प्रमुख वोट बैंक दलितों के बीच सपा का आधार बहुत ही कम है, तो उसने ऐसी तस्वीर गढऩे की कोशिश की है कि यही वह पार्टी है, जिसने मुसलमानों के हितों की सबसे ज्यादा चिंता है और इसीलिए सपा ने मुस्लिम-यादव गठजोड़ बनाया या इस पर ज्यादा काम किया। हालांकि, मुसलमान बसपा को वोट देते हैं, लेकिन वह दलित-मुस्लिम गठजोड़ उत्तर प्रदेश में कभी बन ही नहीं सका, जो अपराजेय साबित होता।

सरकार बनने के बाद बसपा ने नहीं मुस्लिमों में बनाया पैठ
वहीं, साल 2012 में सपा की सरकार बनने के बाद बसपा ने मुस्लिमों के बीच पैठ बनाने के लिए ज्याादा गंभीर प्रयास नहीं किए। बड़ी संख्या में मुसलमान यह शिकायत करते हैं कि बसपा यह तक स्वीकार नहीं करती कि हमने उसका चुनाव दर चुनाव समर्थन किया, लेकिन पार्टी हमसे वोट की पूरी उम्मीद करती है। दंगों के समय मुसलमानों को ऐसे नेता की जरुरत थी, जो उनके पक्ष में खड़ा होता। शायद उम्मीद ऐसी थी कि बसपा नेता दंगे के शिकार लोगों के घरों का दौरा करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

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